१८वीं शताब्दिके अन्तमें और १९वीं शताब्दिके आदिमें) ढुन्ढाहडदेश (राजस्थान)के सवाई
जयपुर नगरमें इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथके रचयिता, निर्ग्रन्थ-वीतरागमार्गके परमश्रद्धावान,
सातिशय बुद्धिके धारक और विद्वत्जनमनवल्लभ आचार्यकल्प पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीका
उदय हुआ था। आपके पिताका नाम जोगीदास तथा माताका नाम रंभादेवी था। आप
‘खंडेलवाल’ जाति व ‘गोदिका’ गोत्रज थे। (‘गोदिका’ वह संभवतः ‘भोंसा’ और ‘बड़जात्या’
नामक गोत्रका ही नामान्तर है।) आपका गृहस्थ जीवन साधन संपन्न था।
समयमें ही जैनसिद्धान्त उपरान्त, व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, कोष आदि विविध विषयोंमें
आपने दक्षता प्राप्त कर ली थी। हिन्दी साहित्यके दिगम्बर जैन विद्वानोंमें आपका नाम खास
उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्यके गद्य लेखक विद्वानोंमें आप प्रथम कोटिके विद्वान गिने जाते
हैं। विद्वत्ताके अनुरूप आपका स्वभाव भी विनम्र व दयालु था। स्वाभाविक कोमलता,
सदाचारिता आदि सद्गुणोंसे आपका जीवन सुशोभित था। अहंकार तो आपको स्पर्श ही
नहीं क र सका था। सौम्यमुद्रा परसे आपकी आंतरीक भद्रता तथा वात्सल्यताका परिचय सहज
ही हो जाता था। आपका रहनसहन बहुत ही सादगीमय था। आध्यात्मिकता तो आपके
जीवनमें ओतप्रोत हो गई थी। श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यादि महर्षियोंके आध्यात्मिक ग्रंथोंका
हो जाते थे। संस्कृत तथा प्राकृत
था। आपका आचार व व्यवहार विवेकयुक्त तथा मृदु था। आपके द्वारा रचित गोम्मटसार,
लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार, आत्मानुशासन और पुरुषार्थसिद्धिउपाय आदिकी भाषाटीकायें
तथा इस ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ नामक आपकी स्वतंत्र रचनाके अवलोकनसे यह ज्ञात होता है
कि उस समयमें आपके जैसा स्वमत-परमतका ज्ञाता शायद ही कोई हो।