Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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८२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
नहीं होती और जिस विचार द्वारा भिन्नता भासित होती है वह मिथ्यादर्शनके जोरसे हो नहीं
सकता, इसलिये पर्यायमें ही अहंबुद्धि पायी जाती है।
तथा मिथ्यादर्शनसे यह जीव कदाचित् बाह्य सामग्रीका संयोग होने पर उसे भी अपनी
मानता है। पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, महल, किंकर आदि प्रत्यक्ष अपनेसे भिन्न और
सदाकाल अपने आधीन नहीं ऐसे स्वयंको भासित होते हैं; तथापि उनमें ममकार करता है।
पुत्रादिकमें ‘ये हैं सो मैं ही हूँ’ ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि होती है। तथा मिथ्यादर्शनसे
शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भासित होता है। अनित्यको नित्य मानता है, भिन्नको अभिन्न
मानता है, दुःखके कारणको सुखका कारण मानता है, दुःखको सुख मानता है
इत्यादि विपरीत
भासित होता है।
इस प्रकार जीव-अजीव तत्त्वोंका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
आस्रवतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा इस जीवको मोहके उदयसे मिथ्यात्व-कषायादिभाव होते हैं, उनको अपना स्वभाव
मानता है, कर्मोपाधिसे हुए नहीं जानता। दर्शन-ज्ञान उपयोग और आस्रवभाव उनको एक
मानता है; क्योंकि इनका आधारभूत तो एक आत्मा है और इनका परिणमन एक ही कालमें
होता है, इसलिये इसे भिन्नपना भासित नहीं होता और भिन्नपना भासित होनेका कारण जो
विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलसे हो नहीं सकता।
तथा ये मिथ्यात्वकषायभाव आकुलता सहित हैं, इसलिये वर्त्तमान दुःखमय हैं और
कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिये आगामी कालमें दुःख करेंगेऐसा उन्हें नहीं मानता और भला
जान इन भावोंरूप होकर स्वयं प्रवर्तता है। तथा वह दुःखी तो अपने इन मिथ्यात्व
कषायभावोंसे होता है और वृथा ही औरोंको दुःख उत्पन्न करनेवाले मानता है। जैसे
दुःखी तो मिथ्याश्रद्धानसे होता है, परन्तु अपने श्रद्धानके अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते उसे
दुःखदायक मानता है। तथा दुःखी तो क्रोधसे होता है, परन्तु जिससे क्रोध किया हो उसको
दुःखदायक मानता है। दुःखी तो लोभसे होता है, परन्तु इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको दुःखदायक
मानता है।
इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
तथा इन भावोंका जैसा फल आता है वैसा भासित नहीं होता। इनकी तीव्रतासे
नरकादि होते हैं तथा मन्दतासे स्वर्गादि होते हैं, वहाँ अधिक-कम आकुलता होती है। ऐसा
भासित नहीं होता है, इसलिये वे बुरे नहीं लगते। कारण यह है कि
वे अपने किये
भासित होते हैं, इसलिये उनको बुरे कैसे माने?
इस प्रकार आस्रवतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।