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चौथा अधिकार ][ ८३
बंधतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा इन आस्रवभावोंसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होता है। उनका उदय होने पर
ज्ञान-दर्शनकी हीनता होना, मिथ्यात्व-कषायरूप परिणमन होना, चाहा हुआ न होना, सुख-दुःखका
कारण मिलना, शरीरसंयोग रहना, गति-जाति-शरीरादिका उत्पन्न होना, नीच-उच्च कुलका पाना
होता है। इनके होनेमें मूलकारण कर्म है, उसे यह पहिचानता नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्म
है, इसे दिखाई नहीं देता; तथा वह इसको इन कार्योंका कर्त्ता दिखाई नहीं देता; इसलिये
इनके होनेमें या तो अपनेको कर्त्ता मानता है या किसी औरको कर्ता मानता है। तथा अपना
या अन्यका कर्त्तापना भासित न हो तो मूढ़ होकर भवितव्यको मानता है।
इस प्रकार बन्धतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
संवरतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा आस्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवको यथार्थ नहीं पहिचाने उसे
संवरका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसे — किसीके अहितरूप आचरण है; उसे वह अहितरूप
भासित न हो तो उसके अभावको हितरूप कैसे माने? जैसे — जीवको आस्रवकी प्रवृत्ति है;
इसे वह अहितरूप भासित न हो तो उसके अभावरूप संवरको कैसे हितरूप माने?
तथा अनादिसे इस जीवको आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ, इसलिये
संवरका होना भासित नहीं होता। संवर होने पर सुख होता है वह भासित नहीं होता।
संवरसे आगामी कालमें दुःख नहीं होगा वह भासित नहीं होता। इसलिये आस्रवका तो संवर
करता नहीं है और उन अन्य पदार्थोंको दुःखदायक मानता है, उन्हींके न होनेका उपाय
किया करता है; परन्तु वे अपने आधीन नहीं हैं। वृथा ही खेदखिन्न होता है।
इस प्रकार संवरतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
निर्जरातत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा बन्धका एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्धको यथार्थ नहीं पहिचाने
उसे निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसे — भक्षण किये हुए विष आदिकसे दुःखका होना
न जाने तो उसे नष्ट करनेके उपायको कैसे भला जाने? उसी प्रकार बन्धरूप किये कर्मोंसे
दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको कैसे भला जाने?
तथा इस जीवको इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्मरूप जो कर्म उनका तो ज्ञान होता नहीं है और
उनमें दुःखोंके कारणभूत शक्ति है उसका भी ज्ञान नहीं है; इसलिये अन्य पदार्थोंके ही निमित्तको
दुःखदायक जानकर उनका ही अभाव करनेका उपाय करता है, परन्तु वे अपने आधीन नहीं