-
८४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हैं। तथा कदाचित् दुःख दूर करनेके निमित्त कोई इष्ट संयोगादि कार्य बनता है तो वह
भी कर्मके अनुसार बनता है। इसलिये उनका उपाय करके वृथा ही खेद करता है।
इस प्रकार निर्जरातत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
मोक्षतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा सर्व कर्मबन्धके अभावका नाम मोक्ष है। जो बन्धको तथा बन्धजनित सर्व
दुःखोंको नहीं पहिचाने, उसको मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसे — किसीको रोग है;
वह उस रोगको तथा रोगजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा रोगके अभावको कैसे भला माने?
उसी प्रकार इसके कर्मबन्धन है; यह उस बन्धनको तथा बन्धजनित दुःखको न जाने तो
सर्वथा बन्धके अभावको कैसे भला जाने?
तथा इस जीवको कर्मोंका और उनकी शक्तिका तो ज्ञान है नहीं; इसलिये बाह्य
पदार्थोंको दुःखका कारण जानकर उनका सर्वथा अभाव करनेका उपाय करता है। तथा यह
तो जानता है कि — सर्वथा दुःख दूर होनेका कारण इष्ट सामग्रियोंको जुटाकर सर्वथा सुखी
होना है, परन्तु ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यह वृथा ही खेद करता है।
इस प्रकार मिथ्यादर्शनसे मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेसे अयथार्थ श्रद्धान है।
इस प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शनके कारण जीवादि सात तत्त्वोंका जो कि प्रयोजनभूत
हैं, उनका अयथार्थ श्रद्धान करता है।
पुण्य-पाप सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
तथा पुण्य-पाप हैं सो इन्हींके विशेष हैं और इन पुण्य-पापकी एक जाति है; तथापि
मिथ्यादर्शनसे पुण्यको भला जानता है, पापको बुरा जानता है। पुण्यसे अपनी इच्छानुसार
किंचित् कार्य बने, उसको भला जानता है और पापसे इच्छानुसार कार्य नहीं बने, उसको
बुरा जानता है; परन्तु दोनों ही आकुलताके कारण हैं इसलिये बुरे ही हैं।
तथा यह अपनी मान्यतासे वहाँ सुख-दुःख मानता है। परमार्थसे जहाँ आकुलता हैं
वहाँ दुःख ही है; इसलिये पुण्य-पापके उदयको भला-बुरा जानना भ्रम ही है।
तथा कितने ही जीव कदाचित् पुण्य-पापके कारण जो शुभ-अशुभभाव उन्हें भला-
बुरा जानते हैं वह भी भ्रम ही है; क्योंकि दोनों ही कर्मबन्धनके कारण हैं।
इस प्रकार पुण्य-पापका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।
इस प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा। यह असत्यरूप है, इसलिये
इसीका नाम मिथ्यात्व है और यह सत्यश्रद्धानसे रहित है, इसलिये इसीका नाम अदर्शन है।