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चौथा अधिकार ][ ८५
मिथ्याज्ञानका स्वरूप
अब, मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहते हैंः — प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंको अयथार्थ जाननेका
नाम मिथ्याज्ञान है। उसके द्वारा उनको जाननेमें संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय होता है।
वहाँ ‘ऐसे है कि ऐसे है?’ — इस प्रकार परस्पर विरुद्धता सहित दोरूप ज्ञान उसका नाम
संशय है। जैसे — ‘मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ?’ — ऐसा जानना। तथा ‘ऐसा ही है’ इस
प्रकार वस्तुस्वरूपसे विरुद्धता सहित एकरूप ज्ञान उसका नाम विपर्यय है। जैसे — ‘मैं शरीर
हूँ’ — ऐसा जानना। तथा ‘कुछ है’ ऐसा निर्धाररहित विचार उसका नाम अनध्यवसाय है।
जैसे — ‘मैं कोई हूँ’ — ऐसा जानना। इस प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंमें संशय, विपर्यय,
अनध्यवसायरूप जो जानना हो उसका नाम मिथ्याज्ञान है।
तथा अप्रयोजनभूत पदार्थोंको यथार्थ जाने या अयथार्थ जाने उसकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान –
सम्यग्ज्ञान नाम नहीं है। जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि रस्सीको रस्सी जाने तो सम्यग्ज्ञान नाम नहीं
होता और सम्यग्दृष्टि रस्सीको साँप जाने तो मिथ्याज्ञान नाम नहीं होता।
यहाँ प्रश्न है कि — प्रत्यक्ष सच्चे-झूठे ज्ञानको सम्यग्ज्ञान – मिथ्याज्ञान कैसे न कहें?
समाधानः — जहाँ जाननेका ही — सच-झूठका निर्धार करनेका — प्रयोजन हो वहाँ तो
कोई पदार्थ है उसके सच-झूठ जाननेकी अपेक्षा ही सम्यग्ज्ञान – मिथ्याज्ञान नाम दिया जाता है।
जैसे — प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणके वर्णनमें कोई पदार्थ होता है; उसके सच्चे जाननेरूप सम्यग्ज्ञानका
ग्रहण किया है और संशयादिरूप जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कहा है। तथा यहाँ संसार –
मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है, वहाँ रस्सी, सर्पादिकका यथार्थ या अन्यथा
ज्ञान संसार – मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये उनकी अपेक्षा यहाँ सम्यग्ज्ञान – मिथ्याज्ञान नहीं कहे
हैं। यहाँ तो प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वोंके ही जाननेकी अपेक्षा सम्यग्ज्ञान – मिथ्याज्ञान कहे हैं।
इसी अभिप्रायसे सिद्धान्तमें मिथ्यादृष्टिके तो सर्व जाननेको मिथ्याज्ञान ही कहा और
सम्यग्दृष्टिके सर्व जाननेको सम्यग्ज्ञान कहा।
यहाँ प्रश्न है कि — मिथ्यादृष्टिको जीवादि तत्त्वोंका अयथार्थ जानना है, उसे मिथ्याज्ञान
कहो; परन्तु रस्सी, सर्पादिकके यथार्थ जाननेको तो सम्यग्ज्ञान कहो।
समाधान : — मिथ्यादृष्टि जानता है, वहाँ उसको सत्ता-असत्ताका विशेष नहीं है; इसलिये
कारणविपर्यय व स्वरूपविपर्यय व भेदाभेदविपर्ययको उत्पन्न करता है। वहाँ जिसे जानता
है उसके मूलकारणको नहीं पहिचानता, अन्यथा कारण मानता है; वह तो कारणविपर्यय है।
तथा जिसे जानता है उसके मूलवस्तुत्वरूप स्वरूपको नहीं पहिचानता, अन्यथास्वरूप मानता