-
८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है; वह स्वरूपविपर्यय है। तथा जिसे जानता है उसे यह इनसे भिन्न है, इनसे अभिन्न है —
ऐसा नहीं पहिचानता, अन्यथा भिन्न-अभिन्नपना मानता है; सो भेदाभेदविपर्यय है। इस प्रकार
मिथ्यादृष्टिके जाननेमें विपरीतता पायी जाती है।
जैसे मतवाला माताको पत्नी मानता है, पत्नीको माता मानता है; उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिके
अन्यथा जानना होता है। तथा जैसे किसी कालमें मतवाला माताको माता और पत्नीको पत्नी
भी जाने तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता, इसलिये उसको
यथार्थ ज्ञान नहीं कहा जाता; उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि किसी कालमें किसी पदार्थको सत्य भी
जाने, तो भी उसके निश्चयरूप निर्धारसे श्रद्धानसहित जानना नहीं होता; अथवा सत्य भी
जाने, परन्तु उनसे अपना प्रयोजन अयथार्थ ही साधता है; इसलिये उसके सम्यग्ज्ञान नहीं
कहा जाता।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहते हैं।
यहाँ प्रश्न है कि — इस मिथ्याज्ञानका कारण कौन है?
समाधानः — मोहके उदयसे जो मिथ्यात्वभाव होता है, सम्यक्त्व नहीं होता; वह इस
मिथ्याज्ञानका कारण है। जैसे — विषके संयोगसे भोजनको भी विषरूप कहते हैं, वैसे
मिथ्यात्वके सम्बन्धमें ज्ञान है सो मिथ्याज्ञान नाम पाता है।
यहाँ कोई कहे कि — ज्ञानावरणको निमित्त क्यों नहीं कहते?
समाधानः — ज्ञानावरणके उदयसे तो ज्ञानके अभावरूप अज्ञानभाव होता है तथा उसके
क्षयोपशमसे किंचित् ज्ञानरूप मति-आदि ज्ञान होते हैं। यदि इनमेंसे किसीको मिथ्याज्ञान,
किसीको सम्यग्ज्ञान कहें तो यह दोनों ही भाव मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टिके पाये जाते हैं,
इसलिये उन दोनोंके मिथ्याज्ञान तथा सम्यग्ज्ञानका सद्भाव हो जायेगा और वह सिद्धान्तसे
विरुद्ध होता है, इसलिये ज्ञानावरणका निमित्त नहीं बनता।
यहाँ फि र पूछते हैं कि — रस्सी, सर्पादिकके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञानका कारण कौन है?
उसको ही जीवादि तत्त्वोंके अयथार्थ-यथार्थ ज्ञानका कारण कहो?
उत्तरः — जाननेमें जितना अयथार्थपना होता है उतना तो ज्ञानावरणके उदयसे होता है;
और जो यथार्थपना होता है उतना ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होता है। जैसे कि — रस्सीको सर्प
जाना वहाँ यथार्थ जाननेकी शक्तिका बाधककारणका उदय है इसलिये अयथार्थ जानता है; तथा
रस्सीको जाना वहाँ यथार्थ जाननेकी शक्तिका कारण क्षयोपशम है इसलिये यथार्थ जानता है।
उसी प्रकार जीवादि तत्त्वोंको यथार्थ जाननेकी शक्ति होने या न होनेमें तो ज्ञानावरणका ही
निमित्त है; परन्तु जैसे किसी पुरुषको क्षयोपशमसे दुःखके तथा सुखके कारणभूत पदार्थोंको यथार्थ