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८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
समाधान : — वह हो तो वह हो — इस अपेक्षा कारणकार्यपना होता है। जैसे — दीपक
और प्रकाश युगपत होते हैं; तथापि दीपक हो तो प्रकाश हो, इसलिये दीपक कारण है
प्रकाश कार्य है। उसी प्रकार ज्ञान — श्रद्धानके है। अथवा मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान के व
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानके कारण-कार्यपना जानना।
फि र प्रश्न है कि — मिथ्यादर्शनके संयोगसे ही मिथ्याज्ञान नाम पाता है, तो एक
मिथ्यादर्शनको ही संसारका कारण कहना था, मिथ्याज्ञानको अलग किसलिये कहा?
समाधान : — ज्ञानकी ही अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके क्षयोपशमसे हुए यथार्थ
ज्ञानमें कुछ विशेष नहीं है तथा वह ज्ञान केवलज्ञानमें भी जा मिलता है, जैसे नदी समुद्रमें
मिलती है। इसलिये ज्ञानमें कुछ दोष नहीं है। परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लगता है वहाँ
एक ज्ञेयमें लगता है; और इस मिथ्यादर्शनके निमित्तसे वह ज्ञान अन्य ज्ञेयोमें तो लगता है,
परन्तु प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय करनेमें नहीं लगता। सो यह ज्ञानमें दोष
हुआ; इसे मिथ्याज्ञान कहा। तथा जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता सो यह श्रद्धानमें
दोष हुआ; इसे मिथ्यादर्शन कहा। ऐसे लक्षणभेदसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानको भिन्न कहा।
इस प्रकार मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहा। इसीको तत्त्वज्ञानके अभावसे अज्ञान कहते
हैं और अपना प्रयोजन नहीं साधता, इसलिये इसीको कुज्ञान कहते हैं।
मिथ्याचारित्रका स्वरूप
अब मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहते हैंः — चारित्रमोहके उदयसे जो कषायभाव होता है
उसका नाम मिथ्याचारित्र है। यहाँ अपने स्वभावरूप प्रवृत्ति नहीं है, झूठी पर-स्वभावरूप
प्रवृत्ति करना चाहता है सो बनती नहीं है; इसलिये इसका नाम मिथ्याचारित्र है।
वही बतलाते हैंः — अपना स्वभाव तो दृष्टा-ज्ञाता है; सो स्वयं केवल देखनेवाला-
जाननेवाला तो रहता नहीं है, जिन पदार्थोंको देखता-जानता है उनमें इष्ट-अनिष्टपना मानता
है, इसलिये रागी-द्वेषी होकर किसीका सद्भाव चाहता है, किसीका अभाव चाहता है, परन्तु
उनका सद्भाव या अभाव इसका किया हुआ होता नहीं, क्योंकि कोई द्रव्य किसी द्रव्यका
कर्त्ता-हर्त्ता है नहीं, सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते हैं; यह वृथा ही
कषायभावसे आकुलित होता है।
तथा कदाचित् जैसा यह चाहे वैसा ही पदार्थ परिणमित हो तो वह अपने परिणमानेसे
तो परिणमित हुआ नहीं है। जैसे गाड़ी चलती है; और बालक उसे धक्का देकर ऐसा माने