Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ ९९
घटपटादिकको और आकाशको एक ही कहें तो कैसे बनेगा? उसी प्रकार लोकको और ब्रह्मको
एक मानना कैसे सम्भव है। तथा आकाशका लक्षण तो सर्वत्र भासित है, इसलिये उसका
तो सर्वत्र सद्भाव मानते हैं; ब्रह्मका लक्षण तो सर्वत्र भासित नहीं होता, इसलिये उसका
सर्वत्र सद्भाव कैसे मानें। इस प्रकारसे भी सर्वरूप ब्रह्म नहीं है।
ऐसा विचार करने पर किसी भी प्रकारसे एक ब्रह्म सम्भवित नहीं है। सर्व पदार्थ
भिन्न - भिन्न ही भासित होते हैं।
यहाँ प्रतिवादी कहता है किसर्व एक ही है, परन्तु तुम्हें भ्रम है, इसलिये तुम्हें एक
भासित नहीं होता। तथा तुमने युक्ति कही सो ब्रह्मका स्वरूप युक्तिगम्य नहीं है, वचन-अगोचर
है। एक भी है; अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है। उसकी महिमा ऐसी ही है।
उससे कहते हैं किप्रत्यक्ष तुझको व हमको व सबको भासित होता है उसे तो
तू भ्रम कहता है। और युक्तिसे अनुमान करें सो तू कहता है कि सच्चा स्वरूप युक्तिगम्य
है ही नहीं। तथा वह कहता है
सच्चा स्वरूप वचन-अगोचर है तो वचन बिना कैसे निर्णय
करें? तथा कहता हैएक भी है, अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है; परन्तु उनकी
अपेक्षा नहीं बतलाता; बावलेकी भाँति ऐसे भी है, ऐसे भी हैऐसा कहकर इसकी महिमा
बतलाता है। परन्तु जहाँ न्याय नहीं होता वहाँ झूठे ऐसा ही वाचालपना करते हैं सो करो,
न्याय तो जिस प्रकार सत्य है उसी प्रकार होगा।
सृष्टिकर्त्तावादका निराकरण
तथा अब, ब्रह्मको लोकका कर्त्ता मानता है उसे मिथ्या दिखलाते हैं।
प्रथम तो ऐसा मानता है कि ब्रह्मको ऐसी इच्छा हुई कि
‘एकोऽहं बहुस्यां’ अर्थात्
मैं एक हूँ सो बहुत होऊँगा।
वहाँ पूछते हैंपूर्व अवस्थामें दुःखी हो तब अन्य अवस्थाको चाहे। सो ब्रह्मने एक
अवस्थासे बहुतरूप होनेकी इच्छा की तो उस एकरूप अवस्थामें क्या दुःख था? तब वह
कहता है कि दुःख तो नहीं था, ऐसा ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। उसे कहते हैं
यदि पहले
थोड़ा सुखी हो और कौतूहल करनेसे बहुत सुखी हो तो कौतूहल करनेका विचार करे।
सो ब्रह्मको एक अवस्थासे बहुत अवस्थारूप होने पर बहुत सुख होना कैसे सम्भव है? और
यदि पूर्व सम्पूर्ण सुखी हो तो अवस्था किसलिये पलटे? प्रयोजन बिना तो कोई कुछ कर्त्तव्य
करता नहीं है।