Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१०० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा पहले भी सुखी होगा इच्छानुसार कार्य होने पर भी सुखी होगा; परन्तु इच्छा
हुई उस काल तो दुःखी होगा? तब वह कहता हैब्रह्मके जिस काल इच्छा होती है उसी
काल ही कार्य होता है, इसलिये दुःखी नहीं होता। वहाँ कहते हैंस्थूल कालकी अपेक्षा
तो ऐसा मानो; परन्तु सूक्ष्म कालकी अपेक्षा तो इच्छाका और कार्यका होना युगपत् सम्भव
नहीं है। इच्छा तो तभी होती है जब कार्य न हो। कार्य हो तब इच्छा नहीं रहती।
इसलिये सूक्ष्म कालमात्र इच्छा रही तब तो दुःखी हुआ होगा; क्योंकि इच्छा है सो ही दुःख
है और कोई दुःखका स्वरूप है नहीं। इसलिए ब्रह्मके इच्छा कैसे बने?
फि र वे कहते हैं किइच्छा होने पर ब्रह्मकी माया प्रगट हुई; वहाँ ब्रह्मको माया
हुई तब ब्रह्म भी मायावी हुआ, शुद्धस्वरूप कैसे रहा? तथा ब्रह्मको और मायाको दण्डी-
दण्डवत् संयोगसम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म
भिन्न है, माया भिन्न है; अद्वैत ब्रह्म कैसे रहा? तथा जैसे दण्डी दण्डको उपकारी जानकर
ग्रहण करता है तैसे ब्रह्म मायाको उपकारी जानता है तो ग्रहण करता है, नहीं तो क्यों
ग्रहण करे? तथा जिस मायाको ब्रह्म ग्रहण करे उसका निषेध करना कैसे सम्भव है? वह
तो उपादेय हुई। तथा यदि समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्निका उष्णत्व स्वभाव है वैसे
ब्रह्मका माया स्वभाव ही हुआ। जो ब्रह्मका स्वभाव है उसका निषेध करना कैसे सम्भव
है? यह तो उत्तम हुई।
फि र वे कहते हैं कि ब्रह्म तो चैतन्य है, माया जड़ है; सो समवायसम्बन्धमें ऐसे
दो स्वभाव सम्भवित नहीं होते। जैसे प्रकाश और अन्धकार एकत्र कैसे सम्भव हैं?
तथा वह कहता हैमायासे ब्रह्म आप तो भ्रमरूप होता नहीं है, उसकी मायासे
जीव भ्रमरूप होता है। उससे कहते हैंजिस प्रकार कपटी अपने कपटको आप जानता
है सो आप भ्रमरूप नहीं होता, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हो जाता है। वहाँ कपटी
तो उसीको कहते हैं जिसने कपट किया, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हुए उन्हें तो कपटी
नहीं कहते। उसी प्रकार ब्रह्म अपनी मायाको आप जानता है सो आप तो भ्रमरूप नहीं
होता, परन्तु उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप होते हैं। वहाँ मायावी तो ब्रह्मको ही कहा
जायगा, उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप हुए उन्हें मायावी किसलिये कहते हैं?
फि र पूछते हैं किवे जीव ब्रह्मसे एक हैं? या न्यारे हैं? यदि एक हैं तो जैसे
कोई आप ही अपने अंगोंको पीड़ा उत्पन्न करे तो उसे बावला कहते हैं; उसी प्रकार ब्रह्म
आप ही जो अपनेसे भिन्न नहीं हैं ऐसे अन्य जीव, उनको मायासे दुःखी करता है सो कैसे