नहीं है। इच्छा तो तभी होती है जब कार्य न हो। कार्य हो तब इच्छा नहीं रहती।
इसलिये सूक्ष्म कालमात्र इच्छा रही तब तो दुःखी हुआ होगा; क्योंकि इच्छा है सो ही दुःख
है और कोई दुःखका स्वरूप है नहीं। इसलिए ब्रह्मके इच्छा कैसे बने?
दण्डवत् संयोगसम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म
भिन्न है, माया भिन्न है; अद्वैत ब्रह्म कैसे रहा? तथा जैसे दण्डी दण्डको उपकारी जानकर
ग्रहण करता है तैसे ब्रह्म मायाको उपकारी जानता है तो ग्रहण करता है, नहीं तो क्यों
ग्रहण करे? तथा जिस मायाको ब्रह्म ग्रहण करे उसका निषेध करना कैसे सम्भव है? वह
तो उपादेय हुई। तथा यदि समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्निका उष्णत्व स्वभाव है वैसे
ब्रह्मका माया स्वभाव ही हुआ। जो ब्रह्मका स्वभाव है उसका निषेध करना कैसे सम्भव
है? यह तो उत्तम हुई।
तो उसीको कहते हैं जिसने कपट किया, उसके कपटसे अन्य भ्रमरूप हुए उन्हें तो कपटी
नहीं कहते। उसी प्रकार ब्रह्म अपनी मायाको आप जानता है सो आप तो भ्रमरूप नहीं
होता, परन्तु उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप होते हैं। वहाँ मायावी तो ब्रह्मको ही कहा
जायगा, उसकी मायासे अन्य जीव भ्रमरूप हुए उन्हें मायावी किसलिये कहते हैं?
आप ही जो अपनेसे भिन्न नहीं हैं ऐसे अन्य जीव, उनको मायासे दुःखी करता है सो कैसे