Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवा अधिकार ][ १०१
बनेगा? तथा जो न्यारे हैं तो जैसे कोई भूत बिना ही प्रयोजन अन्य जीवोंको भ्रम उत्पन्न
करके पीड़ा उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ब्रह्म बिना ही प्रयोजन अन्य जीवोंको माया उत्पन्न
करके पीड़ा उत्पन्न करे सो भी बनता नहीं है।
इस प्रकार माया ब्रह्मकी कहते हैं सो कैसे सम्भव है?
फि र वे कहते हैं
माया होने पर लोक उत्पन्न हुआ, वहाँ जीवोंके जो चेतना है
वह तो ब्रह्मस्वरूप है, शरीरादिक माया है। वहाँ जिस प्रकार भिन्न-भिन्न बहुतसे पात्रोंमें जल
भरा है, उन सबमें चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब अलग-अलग पड़ता है, चन्द्रमा एक है; उसी प्रकार
अलग-अलग बहुतसे शरीरोंमें ब्रह्मका चैतन्यप्रकाश अलग-अलग पाया जाता है। ब्रह्म एक
है, इसलिये जीवोंके चेतना है सो ब्रह्मकी है।
ऐसा कहना भी भ्रम ही है; क्योंकि शरीर जड़ है, इसमें ब्रह्मके प्रतिबिम्बसे चेतना हुई,
तो घट-पटादि जड़ हैं उनमें ब्रह्मका प्रतिबिम्ब क्यों नहीं पड़ा और चेतना क्यों नहीं हुई?
तथा वह कहता हैशरीरको तो चेतन नहीं करता, जीवको करता है।
तब उससे पूछते हैं कि जीवका स्वरूप चेतन है या अचेतन? यदि चेतन है तो
चेतनका चेतन क्या करेगा? अचेतन है तो शरीरकी व घटादिककी व जीवकी एक जाति
हुई। तथा उससे पूछते हैं
ब्रह्मकी और जीवोंकी चेतना एक है या भिन्न है? यदि एक
है तो ज्ञानका अधिक-हीनपना कैसे देखा जाता है? तथा यह जीव परस्परवह उसकी
जानीको नहीं जानता और वह उसकी जानीको नहीं जानता, सो क्या कारण है? यदि तू
कहेगा, यह घटउपाधि भेद है; तो घटउपाधि होनेसे तो चेतना भिन्न-भिन्न ठहरी। घटउपाधि
मिटने पर इसकी चेतना ब्रह्ममें मिलेगी या नाश हो जायगी? यदि नाश हो जायेगी तो यह
जीव तो अचेतन रह जायेगा और तू कहेगा कि जीव ही ब्रह्ममें मिल जाता है तो वहाँ
ब्रह्ममें मिलने पर इसका अस्तित्व रहता है या नहीं रहता? यदि अस्तित्व रहता है तो यह
रहा, इसकी चेतना इसके रही; ब्रह्ममें क्या मिला? और यदि अस्तित्व नहीं रहता है तो
उसका नाश ही हुआ; ब्रह्ममें कौन मिला? यदि तू कहेगा कि ब्रह्मकी और जीवोंकी चेतना
भिन्न है, तो ब्रह्म और सर्व जीव आप ही भिन्न-भिन्न ठहरे। इस प्रकार जीवोंको चेतना
है सो ब्रह्मकी है
ऐसा भी नहीं बनता।
शरीरादि मायाके कहते हो सो माया ही हाड़-मांसादिरूप होती है या मायाके निमित्तसे
और कोई उनरूप होता है। यदि माया ही होती है तो मायाके वर्ण-गंधादिक पहले ही
थे या नवीन हुए हैं? यदि पहले ही थे तो पहले तो माया ब्रह्मकी थी, ब्रह्म अमूर्तिक है