स्वयमेव उनका संहार होता है; तो उसके सदाकाल मारनेरूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते
होंगे और अनेक जीवोंको एकसाथ मारनेकी इच्छा कैसे होती होगी? तथा यदि महाप्रलय
होने पर संहार करता है तो परमब्रह्मकी इच्छा होने पर करता है या उसकी बिना इच्छा
ही करता है? यदि इच्छा होने पर करता है तो परम ब्रह्मके ऐसा क्रोध कैसे हुआ कि
सर्वथा प्रलय करनेकी इच्छा हुई? क्योंकि किसी कारण बिना नाश करनेकी इच्छा नहीं होती
और नाश करनेकी जो इच्छा उसीका नाम क्रोध है सो कारण बतला?
है तब दूर करता है। यदि उसे यह लोक इष्ट-अनिष्ट लगता है तो उसे लोकसे राग-द्वेष
तो हुआ। ब्रह्मका स्वरूप साक्षीभूत किसलिये कहते हो; साक्षीभूत तो उसका नाम है जो
स्वयमेव जैसे हो उसीप्रकार देखता-जानता रहे। यदि इष्ट-अनिष्ट मानकर उत्पन्न करे, नष्ट करे,
उसे साक्षीभूत कैसे कहें? क्योंकि साक्षीभूत रहना और कर्ता-हर्ता होना यह दोनों परस्पर विरोधी
हैं; एकको दोनों सम्भव नहीं हैं।
भोलेपनसे कार्य करके फि र उस कार्यको दूर करना चाहे; उसी प्रकार परमब्रह्मने भी बहुत होकर
एक होनेकी इच्छा की सो मालूम होता है कि बहुत होनेका कार्य किया होगा सो भोलेपनहीसे
किया होगा, आगामी ज्ञानसे किया होता तो किसलिये उसे दूर करनेकी इच्छा होती?
है तो सबका एक साथ संहार कैसे करता है? तथा इसकी इच्छा होनेसे स्वयमेव संहार होता
है; तब इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, इसने संहार क्यों किया?