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११० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यदि अलग रहती है तो ब्रह्मवत् माया भी नित्य हुई, तब अद्वैत ब्रह्म नहीं रहा। और माया
ब्रह्ममें एक हो जाती है तो जो जीव मायामें मिले थे वे भी मायाके साथ ब्रह्ममें मिल गये,
तो महाप्रलय होने पर सर्वका परमब्रह्ममें मिलना ठहरा ही, तब मोक्षका उपाय किसलिये करें?
तथा जो जीव मायामें मिले वे पुनः लोकरचना होने पर वे ही जीव लोकमें आयेंगे
कि वे ब्रह्ममें मिल गये थे, इसलिये नये उत्पन्न होंगे? यदि वे ही आयेंगे तो मालूम होता
है अलग-अलग रहते हैं, मिले क्यों कहते हो? और नये उत्पन्न होंगे तो जीवका अस्तित्व
थोड़ेकाल पर्यन्त ही रहता है, फि र किसलिये मुक्त होनेका उपाय करें?
तथा वह कहता है — पृथ्वी आदि हैं वे मायामें मिलते हैं, सो माया अमूर्तिक सचेतन
है या मूर्तिक अचेतन? यदि अमूर्तिक सचेतन है तो अमूर्तिकमें मूर्तिक अचेतन कैसे मिलेगा?
और मूर्तिक अचेतन है तो यह ब्रह्ममें मिलता है या नहीं? यदि मिलता है तो इसके मिलनेसे
ब्रह्म भी मूर्तिक अचेतनसे मिश्रित हुआ। और नहीं मिलता है तो अद्वैतता नहीं रही। और
तू कहेगा — यह सर्व अमूर्तिक अचेतन हो जाते हैं तो आत्मा और शरीरादिककी एकता हुई,
सो यह संसारी एकता मानता ही है, इसे अज्ञानी किसलिये कहें?
फि र पूछते हैं — लोकका प्रलय होने पर महेशका प्रलय होता है या नहीं होता?
यदि होता है तो एक साथ होता है या आगे-पीछे होता है? यदि एकसाथ होता है तो
आप नष्ट होता हुआ लोकको नष्ट कैसे करेगा? और आगे-पीछे होता है तो महेश लोकको
नष्ट करके आप कहाँ रहा, आप भी तो सृष्टिमें ही था?
इस प्रकार महेशको सृष्टिका संहारकर्त्ता मानते हैं सो असम्भव है।
इस प्रकारसे व अन्य अनेक प्रकारसे ब्रह्मा, विष्णु, महेशको सृष्टिका उत्पन्न करनेवाला,
रक्षा करनेवाला, संहार करनेवाला मानना नहीं बनता; इसलिये लोकको अनादिनिधन मानना।
लोकके अनादिनिधनपनेकी पुष्टि
इस लोकमें जो जीवादि पदार्थ हैं वे न्यारे-न्यारे अनादिनिधन हैं; तथा उनकी अवस्थाका
परिवर्तन होता रहता है, उस अपेक्षासे उत्पन्न-विनष्ट होते कहे जाते हैं। तथा जो स्वर्ग-
नरक द्वीपादिक हैं वे अनादिसे इसी प्रकार ही हैं और सदाकाल इसी प्रकार रहेंगे।
कदाचित् तू कहेगा — बिना बनाये ऐसे आकारादि कैसे हुए? सो हुए होंगे तो बनाने
पर ही हुए होंगे। ऐसा नहीं है, क्योंकि अनादिसे ही जो पाये जाते हैं वहाँ तर्क कैसा?
जिसप्रकार तू परमब्रह्मका स्वरूप अनादिनिधन मानता है, उसी प्रकार उन जीवादिक व