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पाँचवाँ अधिकार ][ १११
स्वर्गादिकको अनादिनिधन मानते हैं। तू कहेगा — जीवादिक व स्वर्गादिक कैसे हुए? हम कहेंगे
परमब्रह्म कैसे हुआ? तू कहेगा — इनकी रचना ऐसी किसने की? हम कहेंगे — परमब्रह्मको
ऐसा किसने बनाया? तू कहेगा — परमब्रह्म स्वयंसिद्ध है; हम कहेंगे — जीवादिक व स्वर्गादिक
स्वयंसिद्ध हैं। तू कहेगा — इनकी और परमब्रह्मकी समानता कैसे सम्भव है? तो सम्भावनामें
दूषण बतला। लोकको नवीन उत्पन्न करना, उसका नाश करना, उसमें तो हमने अनेक दोष
दिखाये। लोकको अनादिनिधन माननेसे क्या दोष है? सो तू बतला।
यदि तू परमब्रह्म मानता है सो अलग कोई है ही नहीं; इस संसारमें जीव हैं वे
ही यथार्थ ज्ञानसे मोक्षमार्ग साधनेसे सर्वज्ञ वीतराग होते हैं।
यहाँ प्रश्न है कि — तुम न्यारे-न्यारे जीव अनादिनिधन कहते हो; मुक्त होनेके पश्चात्
तो निराकार होते हैं, वहाँ न्यारे-न्यारे कैसे सम्भव हैं?
समाधान : — मुक्त होनेके पश्चात् सर्वज्ञको दिखते हैं या नहीं दिखते? यदि दिखते हैं तो
कुछ आकार दिखता ही होगा। बिना आकार देखे क्या देखा? और नहीं दिखते तो या तो
वस्तु ही नहीं है या सर्वज्ञ नहीं है। इसलिये इन्द्रियज्ञानगम्य आकार नहीं है उस अपेक्षा निराकार
हैं और सर्वज्ञ ज्ञानगम्य हैं, इसलिये आकारवान हैं। जब आकारवान ठहरे तब अलग-अलग
हों तो क्या दोष लगेगा? और यदि तू जाति अपेक्षा एक कहे तो हम भी मानते हैं। जैसे
गेहूँ भिन्न-भिन्न हैं उनकी जाति एक है; — इस प्रकार एक मानें तो कुछ दोष नहीं है।
इस प्रकार यथार्थ श्रद्धानसे लोकमें सर्व पदार्थ अकृत्रिम भिन्न-भिन्न अनादिनिधन मानना।
यदि वृथा ही भ्रमसे सच-झूठका निर्णय न करे तो तू जाने, अपने श्रद्धानका फल तू पायेगा।
ब्रह्मसे कुलप्रवृत्ति आदिका प्रतिषेध
तथा वे ही ब्रह्मसे पुत्र-पौत्रादि द्वारा कुलप्रवृत्ति कहते हैं। और कुलोंमें राक्षस, मनुष्य, देव,
तिर्यंचोंके परस्पर प्रसूति भेद बतलाते हैं। वहाँ देवसे मनुष्य व मनुष्यसे देव व तिर्यंचसे मनुष्य
इत्यादि — किसी माता किसी पितासे किसी पुत्र-पुत्रीका उत्पन्न होना बतलाते हैं सो कैसे सम्भव है?
तथा मनहीसे व पवनादिसे व वीर्य सूँघने आदिसे प्रसूतिका होना बतलाते हैं सो
प्रत्यक्षविरुद्ध भासित होता है। ऐसा होनेसे पुत्र-पौत्रादिकका नियम कैसे रहा? तथा बड़े-बड़े
महन्तोंको अन्य-अन्य माता-पितासे हुआ कहते हैं; सो महन्त पुरुष कुशीलवान माता-पिताके कैसे
उत्पन्न होंगे? यह तो लोकमें गाली है। फि र ऐसा कहकर उनको महंतता किसलिये कहते हैं?
तथा गणेशादिककी मैल आदिसे उत्पत्ति बतलाते हैं व किसीके अंग किसीमें जुड़े
बतलाते हैं। इत्यादि अनेक प्रत्यक्षविरुद्ध कहते हैं।