निषेध है; परन्तु ऐसे निर्दय हैं कि कुछ गिनते नहीं हैं और कहते हैं
उसी प्रकार हिंसा करनेसे धर्म और कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्तु जिनकी हिंसा
करना कहा, उनकी तो कुछ शक्ति नहीं है, किसीको उनकी पीड़ा नहीं है। यदि किसी शक्तिवान
व इष्टका होम करना ठहराया होता तो ठीक रहता। पापका भय नहीं है, इसलिये पापी दुर्बलके
घातक होकर अपने लोभके अर्थ अपना व अन्यका बुरा करनेमें तत्पर हुए हैं।
हो, सर्वके कर्ता-हर्ता हो, इत्यादि विशेषणोंसे गुण गाते हैं; सो इनमें कितने ही तो निराकारादि
विशेषण हैं सो अभावरूप हैं, उनको सर्वथा माननेसे अभाव ही भासित होता है। क्योंकि
आकारादि बिना वस्तु कैसी होगी? तथा कितने ही सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं
सो उनका असम्भवपना पहले दिखाया ही है।
या जड़ है? यदि चेतन है तो वह चेतना ब्रह्मकी है या इसीकी है? यदि ब्रह्मकी है तो
‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा मानना तो चेतनाहीके होता है सो चेतना ब्रह्मका स्वभाव ठहरा और
स्वभाव-स्वभावीके तादात्म्य सम्बन्ध है, वहाँ दास और स्वामीका सम्बन्ध कैसे बनता है? दास
और स्वामीका सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ हो तभी बनता है। तथा यदि यह चेतना इसीकी
है तो यह अपनी चेतनाका स्वामी भिन्न पदार्थ ठहरा, तब मैं अंश हूँ व ‘‘जो तू है सो