Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११५
तथा यज्ञादिक करना धर्म ठहराते हैं, सो वहाँ बड़े जीव उनका होम करते हैं, अग्नि
आदिकका महा प्रारम्भ करते हैं, वहाँ जीवघात होता है; सो उन्हींके शास्त्रोंमें व लोकमें हिंसाका
निषेध है; परन्तु ऐसे निर्दय हैं कि कुछ गिनते नहीं हैं और कहते हैं
‘‘यज्ञार्थ पशवः
सृष्टाः’’ इस यज्ञके ही अर्थ पशु बनाये हैं, वहाँ घात करनेका दोष नहीं है।
तथा मेघादिकका होना, शत्रु आदिका विनष्ट होना इत्यादि फल बतलाकर अपने लोभके
अर्थ रागादिकोंको भ्रमित करते हैं। सो कोई विषसे जीवित होना कहे तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है;
उसी प्रकार हिंसा करनेसे धर्म और कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्तु जिनकी हिंसा
करना कहा, उनकी तो कुछ शक्ति नहीं है, किसीको उनकी पीड़ा नहीं है। यदि किसी शक्तिवान
व इष्टका होम करना ठहराया होता तो ठीक रहता। पापका भय नहीं है, इसलिये पापी दुर्बलके
घातक होकर अपने लोभके अर्थ अपना व अन्यका बुरा करनेमें तत्पर हुए हैं।
योग मीमांसा
तथा वे मोक्षमार्ग भक्तियोग और ज्ञानयोग द्वारा दो प्रकारसे प्ररूपित करते हैं।
भक्तियोग मीमांसा
अब, भक्तियोग द्वारा मोक्षमार्ग कहते हैं, उसका स्वरूप कहा जाता हैः
वहाँ भक्ति निर्गुण-सगुण भेदसे दो प्रकारकी कहते हैं। वहाँ अद्वैत परब्रह्मकी भक्ति
करना सो निर्गुण भक्ति है; वह इस प्रकार कहते हैंतुम निराकार हो, निरंजन हो, मन-
वचनसे अगोचर हो, अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्वके प्रतिपालक हो, अधम उधारन
हो, सर्वके कर्ता-हर्ता हो, इत्यादि विशेषणोंसे गुण गाते हैं; सो इनमें कितने ही तो निराकारादि
विशेषण हैं सो अभावरूप हैं, उनको सर्वथा माननेसे अभाव ही भासित होता है। क्योंकि
आकारादि बिना वस्तु कैसी होगी? तथा कितने ही सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं
सो उनका असम्भवपना पहले दिखाया ही है।
फि र ऐसा कहते हैं किजीवबुद्धिसे मैं तुम्हारा दास हूँ, शास्त्रदृष्टिसे तुम्हारा अंश
हूँ, तत्त्वबुद्धिसे ‘‘तू ही मैं हूँ’’ सो यह तीनों ही भ्रम हैं। यह भक्ति करनेवाला चेतन है
या जड़ है? यदि चेतन है तो वह चेतना ब्रह्मकी है या इसीकी है? यदि ब्रह्मकी है तो
‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा मानना तो चेतनाहीके होता है सो चेतना ब्रह्मका स्वभाव ठहरा और
स्वभाव-स्वभावीके तादात्म्य सम्बन्ध है, वहाँ दास और स्वामीका सम्बन्ध कैसे बनता है? दास
और स्वामीका सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ हो तभी बनता है। तथा यदि यह चेतना इसीकी
है तो यह अपनी चेतनाका स्वामी भिन्न पदार्थ ठहरा, तब मैं अंश हूँ व ‘‘जो तू है सो