होना असम्भव है, ऐसी बुद्धि कैसे हुई? इसलिये ‘‘मैं दास हूँ’’ ऐसा कहना तो तभी बनता
है जब अलग-अलग पदार्थ हों। और ‘‘तेरा मैं अंश हूँ’’ ऐसा कहना बनता ही नहीं।
क्योंकि ‘तू’ और ‘मैं’ ऐसा तो भिन्न हो तभी बनता है, परन्तु अंश-अंशी भिन्न कैसे होंगे?
अंशी तो कोई भिन्न वस्तु है नहीं, अंशोंका समुदाय वही अंशी है। और ‘‘तू है सो मैं
हूँ’’
है; तो जो नाम ईश्वरका है वही नाम किसी पापी पुरुषका रखा, वहाँ दोनोंके नाम- उच्चारणमें
फलकी समानता हो, सो कैसे बनेगा? इसलिये स्वरूपका निर्णय करके पश्चात् भक्ति करने
योग्य हो उसकी भक्ति करना।
तथा जहाँ काम-क्रोधादिसे उत्पन्न हुए कार्योंका वर्णन करके स्तुति आदि करें उसे
निरूपित करते हैं। तथा स्नान करती स्त्रियोंके वस्त्र चुराना, दधि लूटना, स्त्रियोंके पैर पड़ना,
स्त्रियोंके आगे नाचना इत्यादि जिन कार्योंको करते संसारी जीव भी लज्जित हों उन कार्योंका
करना ठहराते हैं; सो ऐसा कार्य अति कामपीड़ित होने पर ही बनता है।
कार्य हैं। विषयसामग्री प्राप्तिके अर्थ यत्न किये कहते हैं सो यह लोभके कार्य हैं।
कौतूहलादिक किये कहते हैं सो हास्यादिकके कार्य हैं। ऐसे यह कार्य क्रोधादिसे युक्त होने
पर ही बनते हैं।
शास्त्रमें अत्यन्त निन्दा पायी जाती है, उन कार्योंका वर्णन करके स्तुति करना तो हस्तचुगल
जैसा कार्य हुआ।