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११८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कुछ कहे नहीं और आप ही ‘‘राजाने मुझे इनाम दी’’ — ऐसा कहकर उसे अंगीकार करे तो
यह खेल हुआ। उसी प्रकार करनेसे भक्ति तो हुई नहीं, हास्य करना हुआ।
फि र ठाकुर और तुम दो हो या एक हो? दो हो तो तूनें भेंट की, पश्चात् ठाकुर दे तो
ग्रहण करना चाहिए, अपने आप ग्रहण किसलिए करता है? और तू कहेगा — ठाकुरकी तो मूर्ति
है, इसलिए मैं ही कल्पना करता हूँ; तो ठाकुरके करनेका कार्य तूने ही किया, तब तू ही ठाकुर
हुआ। और यदि एक हो तो भेंट कहना, प्रसाद करना झूठ हुआ। एक होने पर यह व्यवहार
सम्भव नहीं होता; इसलिए भोजनासक्त पुरुषों द्वारा ऐसी कल्पना की जाती है।
तथा ठाकुरजीके अर्थ नृत्य-गानादि करना; शीत, ग्रीष्म, वसन्तादि ऋतुओंमें संसारियोंके
सम्भवित ऐसी विषयसामग्री एकत्रित करना इत्यादि कार्य करते हैं। वहाँ नाम तो ठाकुरका
लेना और इन्द्रियोंके विषय अपने पोषना सो विषयासक्त जीवों द्वारा ऐसा उपाय किया गया
है। तथा वहाँ जन्म, विवाहादिककी व सोने-जागने इत्यादिकी कल्पना करते हैं सो जिस
प्रकार लड़कियाँ गुा-गुड़ियोंका खेल बनाकर कौतूहल करती हैं; उसी प्रकार यह भी कौतूहल
करता हैं, कुछ परमार्थरूप गुण नहीं है। तथा बाल ठाकुरका स्वांग बनाकर चेष्टाएँ दिखाते
हैं, उससे अपने विषयोंका पोषण करते हैं और कहते हैं — यह भी भक्ति है, इत्यादि क्या-
क्या कहें? ऐसी अनेक विपरीतताएँ सगुण भक्तिमें पायी जाती हैं।
इस प्रकार दोनों प्रकारकी भक्तिसे मोक्षमार्ग कहते हैं सो उसे मिथ्या दिखाया।
ज्ञानयोग मीमांसा
अब अन्यमत प्ररूपित ज्ञानयोगसे मोक्षमार्गका स्वरूप बतलाते हैंः —
एक अद्वैत सर्वव्यापी परब्रह्मको जानना उसे ज्ञान कहते हैं सो उसका मिथ्यापना तो
पहले कहा ही है।
तथा अपनेको सर्वथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मानना, काम-क्रोधादिक व शरीरादिकको भ्रम
जानना उसे ज्ञान कहते हैं; सो यह भ्रम है। आप शुद्ध है तो मोक्षका उपाय किसलिये
करता है? आप शुद्ध ब्रह्म ठहरा तब कर्तव्य क्या रहा? तथा अपनेको प्रत्यक्ष काम-क्रोधादिक
होते देखे जाते हैं, और शरीरादिकका संयोग देखा जाता है; सो इनका अभाव होगा तब
होगा, वर्तमानमें इनका सद्भाव मानना भ्रम कैसे हुआ?
फि र कहते हैं — मोक्षका उपाय करना भी भ्रम है। जैसे — रस्सी तो रस्सी ही है,
उसे सर्प जान रहा था सो भ्रम था, भ्रम मिटने पर रस्सी ही है; उसी प्रकार आप तो
ब्रह्म ही है, अपनेको अशुद्ध जान रहा था सो भ्रम था, भ्रम मिटने पर आप ब्रह्म ही है। —