Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पाँचवाँ अधिकार ][ ११९
सो ऐसा कहना मिथ्या है। यदि आप शुद्ध हो और उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम है; और
आप काम-क्रोधादि सहित अशुद्ध हो रहा है उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम कैसे होगा? शुद्ध
जानने पर भ्रम होगा। सो झूठे भ्रमसे अपनेको शुद्धब्रह्म माननेसे क्या सिद्धि है?
तथा तू कहेगायह काम-क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं, ब्रह्म न्यारा है। तो तुझसे
पूछते हैंमन तेरा स्वरूप है या नहीं? यदि है तो काम-क्रोधादिक भी तेरे ही हुए; और
नहीं है तो तू ज्ञानस्वभाव है या जड़ है? यदि ज्ञानस्वरूप है तो तेरे तो ज्ञान मन व
इन्द्रिय द्वारा ही होता दिखाई देता है। इनके बिना कोई ज्ञान बतलाये तो उसे तेरा अलग
स्वरूप मानें, सो भासित नहीं होता। तथा ‘‘मनज्ञाने’’ धातुसे मन शब्द उत्पन्न होता है सो
मन तो ज्ञानस्वरूप है; सो यह ज्ञान किसका है उसे बतला; परन्तु अलग कोई भासित नहीं
होता। तथा यदि तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूपका विचार कैसे करता है? यह
तो बनता नहीं है। तथा तू कहता है
ब्रह्म न्यारा है, सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है या
और है? यदि तू ही है तो तेरे ‘‘मैं ब्रह्म हूँ’’ऐसा माननेवाला जो ज्ञान है वह तो मन-
स्वरूप ही है, मनसे अलग नहीं है; और अपनत्व मानना तो अपनेमें ही होता है। जिसे
न्यारा जाने उसमें अपनत्व नहीं माना जाता। सो मनसे न्यारा ब्रह्म है, तो मनरूप ज्ञान ब्रह्ममें
अपनत्व किसलिये मानता है? तथा यदि ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्ममें अपनत्व किसलिये
मानता है? इसलिये भ्रम छोड़कर ऐसा जान कि जिस प्रकार स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो शरीरका
स्वरूप है सो जड़ है, उसके द्वारा जो जानपना होता है सो आत्माका स्वरूप है; उसी प्रकार
मन भी सूक्ष्म परमाणुओंका पुंज है वह शरीरका ही अंग है। उसके द्वारा जानपना होता
है व काम-क्रोधादिभाव होते हैं सो सर्व आत्माका स्वरूप है।
विशेष इतनाजानपना तो निजस्वभाव है, काम-क्रोधादिक औपाधिकभाव हैं, उनसे
आत्मा अशुद्ध है। जब काल पाकर काम-क्रोधादि मिटेंगे और जानपनेके मन-इन्द्रियकी
आधीनता मिटेगी तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा।
इसी प्रकार बुद्धिअहंकारादिक भी जान लेना; क्योंकि मन और बुद्धि आदिक एकार्थ
हैं और अहंकारादिक हैं वे काम-क्रोधादिवत् औपाधिकभाव हैं; इनको अपनेसे भिन्न जानना भ्रम
है। इनको अपना जानकर औपाधिकभावोंका अभाव करनेका उद्यम करना योग्य है। तथा जिनसे
इसका अभाव न हो सके और अपनी महंतता चाहें, वे जीव इन्हें अपने न ठहराकर स्वच्छन्द
प्रवर्तते हैं; काम-क्रोधादिक भावोंको बढ़ाकर विषय-सामग्रियोंमें व हिंसादिक कार्योंमें तत्पर होते हैं।
तथा अहंकारादिके त्यागको भी वे अन्यथा मानते हैं। सर्वको परब्रह्म मानना, कहीं
अपनत्व न मानना उसे अहंकारका त्याग बतलाते हैं सो मिथ्या है; क्योंकि कोई आप है