Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
या नहीं? यदि तो है आपमें अपनत्व कैसे न मानें? यदि आप नहीं है तो सर्वका ब्रह्म
कौन मानता है? इसलिये शरीरादि परमें अहंबुद्धि न करना, वहाँ कर्ता न होना सो अहंकारका
त्याग है। अपनेमें अहंबुद्धि करनेका दोष नहीं है।
तथा सर्वको समान जानना, किसीमें भेद नहीं करना, उसको राग-द्वेषका त्याग बतलाते
हैं वह भी मिथ्या है; क्योंकि सर्व पदार्थ समान नहीं हैं। कोई चेतन है, कोई अचेतन है,
कोई कैसा है, कोई कैसा है, उन्हें समान कैसे मानें? इसलिये परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट न मानना
सो राग-द्वेषका त्याग है। पदार्थोंका विशेष जाननेमें तो कुछ दोष नहीं है।
इसी प्रकार अन्य मोक्षमार्गरूप भावोंकी अन्यथा कल्पना करते हैं। तथा ऐसी कल्पनासे
कुशील सेवन करते हैं, अभक्ष्य भक्षण करते हैं, वर्णादि भेद नहीं करते, हीन क्रिया आचरते
हैं, इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्तते हैं। जब कोई पूछे तब कहते हैं
यह तो शरीरका धर्म
है अथवा जैसा प्रारब्ध (भाग्य) है वैसा होता है, अथवा जैसी ईश्वरकी इच्छा होती है वैसा
होता है, हमको विकल्प नहीं करना।
सो देखो झूठ, आप जान-जानकर प्रवर्तता है उसे तो शरीरका धर्म बतलाता है,
स्वयं उद्यमी होकर कार्य करता है, उसे प्रारब्ध (भाग्य) कहता है और आप इच्छासे सेवन
करे उसे ईश्वरकी इच्छा बतलाता है। विकल्प करता है और कहता है
हमको तो विकल्प
नहीं करना। सो धर्मका आश्रय लेकर विषयकषाय सेवन करना है, इसलिये ऐसी झूठी युक्ति
बनाता है। यदि अपने परिणाम किंचित् भी न मिलाये तो हम इसका कर्तव्य न मानें।
जैसे
आप ध्यान धरे बैठे हो, कोई अपने ऊपर वस्त्र डाल गया, वहाँ आप किंचित् सुखी
न हुए; वहाँ तो उसका कर्तव्य नहीं है यह सच है। और आप वस्त्रको अंगीकार करके
पहिने, अपनी शीतादिक वेदना मिटाकर सुखी हो; वहाँ यदि अपना कर्तव्य नहीं मानें तो
कैसे सम्भव है? तथा कुशील सेवन करना, अभक्ष्य भक्षण करना इत्यादि कार्य तो परिणाम
मिले बिना होते नहीं; वहाँ अपना कर्तव्य कैसे न मानें? इसलिये यदि काम-क्रोधादिका अभाव
ही हुआ हो तो वहाँ किन्हीं क्रियाओंमें प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। और यदि काम-क्रोधादि
पाये जाते हैं तो जिसप्रकार यह भाव थोड़े हों तदनुसार प्रवृत्ति करना। स्वच्छन्द होकर
इनको बढ़ाना युक्त नहीं है।
तथा कई जीव पवनादिकी साधना करके अपनेको ज्ञानी मानते हैं। वहाँ इड़ा, पिंगला,
सुषुम्णारूप नासिकाद्वारसे पवन निकले, वहाँ वर्णादिक भेदोंसे पवनकी ही पृथ्वी तत्त्वादिरूप
कल्पना करते हैं। उसके विज्ञान द्वारा किंचित् साधनासे निमित्तका ज्ञान होता है, इसलिये
जगतको इष्ट-अनिष्ट बतलाते हैं, आप महन्त कहलाते हैं; सो यह तो लौकिक कार्य है, कहीं