कौन मानता है? इसलिये शरीरादि परमें अहंबुद्धि न करना, वहाँ कर्ता न होना सो अहंकारका
त्याग है। अपनेमें अहंबुद्धि करनेका दोष नहीं है।
कोई कैसा है, कोई कैसा है, उन्हें समान कैसे मानें? इसलिये परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट न मानना
सो राग-द्वेषका त्याग है। पदार्थोंका विशेष जाननेमें तो कुछ दोष नहीं है।
हैं, इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्तते हैं। जब कोई पूछे तब कहते हैं
होता है, हमको विकल्प नहीं करना।
करे उसे ईश्वरकी इच्छा बतलाता है। विकल्प करता है और कहता है
बनाता है। यदि अपने परिणाम किंचित् भी न मिलाये तो हम इसका कर्तव्य न मानें।
जैसे
पहिने, अपनी शीतादिक वेदना मिटाकर सुखी हो; वहाँ यदि अपना कर्तव्य नहीं मानें तो
कैसे सम्भव है? तथा कुशील सेवन करना, अभक्ष्य भक्षण करना इत्यादि कार्य तो परिणाम
मिले बिना होते नहीं; वहाँ अपना कर्तव्य कैसे न मानें? इसलिये यदि काम-क्रोधादिका अभाव
ही हुआ हो तो वहाँ किन्हीं क्रियाओंमें प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। और यदि काम-क्रोधादि
पाये जाते हैं तो जिसप्रकार यह भाव थोड़े हों तदनुसार प्रवृत्ति करना। स्वच्छन्द होकर
इनको बढ़ाना युक्त नहीं है।
कल्पना करते हैं। उसके विज्ञान द्वारा किंचित् साधनासे निमित्तका ज्ञान होता है, इसलिये
जगतको इष्ट-अनिष्ट बतलाते हैं, आप महन्त कहलाते हैं; सो यह तो लौकिक कार्य है, कहीं