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छठवाँ अधिकार ][ १७९
तो जितना बने उतना ही करना, कुछ दोष नहीं है; परन्तु ऊँचा धर्मात्मा नाम रखकर नीचक्रिया
करनेसे महापाप ही होता है।
वही ‘‘षट्पाहुड़’’ में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा हैः —
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ।।१८।। (सूत्रपाहुड़)
अर्थः — मुनिपद वह यथाजातरूप सद्दश है। जैसा जन्म होते हुए था वैसा नग्न है।
सो वह मुनि अर्थ यानी धन-वस्त्रादिक वस्तुएँ उनमें तिलके तुषमात्र भी ग्रहण नहीं करता।
यदि कदाचित् अल्प – बहुत ग्रहण करे तो उससे निगोद जाता है।
सो यहाँ देखो, गृहस्थपनेमें बहुत परिग्रह रखकर कुछ प्रमाण करे तो भी स्वर्ग-मोक्षका
अधिकारी होता है और मुनिपनेमें किंचित् परिग्रह अंगीकार करने पर भी निगोदगामी होता
है। इसलिये ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नहीं है।
देखो, हुंडावसर्पिणी कालमें यह कलिकाल वर्त रहा है। इसके दोषसे जिनमतमें मुनिका
स्वरूप तो ऐसा है जहाँ बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका लगाव नहीं है, केवल अपने आत्माका आपरूप
अनुभवन करते हुए शुभाशुभभावोंसे उदासीन रहते हैं; और अब विषय-कषायासक्त जीव मुनिपद
धारण करते हैं; वहाँ सर्व सावद्यके त्यागी होकर पंचमहाव्रतादि अंगीकार करते हैं, श्वेत-
रक्तादि वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं, भोजनादिमें लोलुप होते हैं, अपनी पद्धति बढ़ानेके उद्यमी
होते हैं व कितने ही धनादिक भी रखते हैं, हिंसादिक करते हैं व नाना आरम्भ करते हैं।
परन्तु अल्प परिग्रह ग्रहण करनेका फल निगोद कहा है, तब ऐसे पापोंका फल तो अनन्त
संसार होगा ही होगा।
लोगोंकी अज्ञानता तो देखो, कोई एक छोटी भी प्रतिज्ञा भंग करे उसे तो पापी
कहते हैं और ऐसी बड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखकर भी गुरु मानते हैं, उनका मुनिवत्
सन्मानादिक करते हैं; सो शास्त्रमें कृत, कारित, अनुमोदनाका फल कहा है; इसलिये उनको
भी वैसा ही फल लगता है।
मुनिपद लेनेका क्रम तो यह है — पहले तत्त्वज्ञान होता है, पश्चात् उदासीन परिणाम
होते हैं, परिषहादिक सहनेकी शक्ति होती है; तब वह स्वयमेव मुनि होना चाहता है और
तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार कराते हैं।
यह कैसी विपरीतता है कि — तत्त्वज्ञानरहित विषय-कषायासक्त जीवोंको मायासे व लोभ
दिखाकर मुनिपद देना, पश्चात् अन्यथा प्रवृत्ति कराना; सो यह बड़ा अन्याय है।