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१८० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इस प्रकार कुगुरुका व उनके सेवनका निषेध किया।
अब इस कथनको दृढ़ करनेके लिये शास्त्रोंकी साक्षी देते हैं।
वहाँ ‘‘उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला’’में ऐसा कहा हैः —
गुरुणो भट्टा जाया सद्दे थुणि ऊण लिंति दाणाइं।
दोण्णवि अमुणियसारा दूसमिसमयम्मि बुड्ढंति।।३१।।
कालदेषसे गुरु जा हैं वे तो भाट हुए; भाटवत् शब्द द्वारा दातारकी स्तुति करके
दानादि ग्रहण करते हैं। सो इस दुःषमकालमें दोनों ही — दातार व पात्र – संसारमें डूबते हैं।
तथा वहाँ कहा हैः —
सप्पे दिट्ठे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अक्खेइ।
जो चयइ कुगुरु सप्पं हा मूढा भणइ तं दुट्ठं।।३६।।
अर्थः — सर्पको देखकर कोई भागे, उसे तो लोग कुछ भी नहीं कहते। हाय हाय!
देखो तो, जो कुगुरु सर्पको छोड़ते हैं उसे मूढ़लोग दुष्ट कहते हैं, बुरा बोलते हैं।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अणंताइ देह मरणाईं।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरु सेवणं भद्दं।।३७।।
अहो, सर्प द्वारा तो एकबार मरण होता है और कुगुरु अनन्त मरण देता है —
अनन्तबार जन्म-मरण कराता है। इसलिये हे भद्र, सर्पका ग्रहण तो भला और कुगुरु-सेवन
भला नहीं है।
वहाँ और भी गाथाएँ यह श्रद्धान दृढ़ करनेको बहुत कही हैं, सो उस ग्रन्थसे जान
लेना।
तथा ‘‘संघपट्ट’’ में ऐसा कहा हैः —
क्षुत्क्षामः किल कोपि रंकशिशुकः प्रवृज्य चैत्ये क्वचित्
कृत्वा किंचनपक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम्।
चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति।।
अर्थः — देखो, क्षुधासे कृश किसी रंकका बालक कहीं चैत्यालयादिमें दीक्षा धारण करके,
पापरहित न होता हुआ किसी पक्ष द्वारा आचार्यपदको प्राप्त हुआ। वह चैत्यालयमें अपने
गृहवत् प्रवर्तता है, निजगच्छमें कुटुम्बवत् प्रवर्तता है, अपनेको इन्द्रवत् महान मानता है,