Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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छठवाँ अधिकार ][ १८१
ज्ञानियोंको बालकवत् अज्ञानी मानता है, सर्व गृहस्थोंको रंकवत् मानता है; सो यह बड़ा आश्चर्य
हुआ है।
तथा ‘‘यैर्जातो न च वर्द्धितो न च क्रीतो’’ इत्यादि काव्य है; उसका अर्थ ऐसा है
जिनसे जन्म नहीं हुआ है, बढ़ा नहीं है, मोल नहीं लिया है, देनदार नहीं हुआ हैइत्यादिक
कोई प्रकार सम्बन्ध नहीं है; और गृहस्थोंको वृषभवत् हाँकते हैं, जबरदस्ती दानादिक लेते
हैं; सो हाय हाय! यह जगत् राजासे रहित है, कोई न्याय पूछने वाला नहीं है।
इस प्रकार वहाँ श्रद्धानके पोषक काव्य हैं सो उस ग्रन्थसे जानना।
यहाँ कोई कहता है
यह तो श्वेताम्बरविरचित् उपदेश है, उसकी साक्षी किसलिये दी?
उत्तरःजैसे नीचा पुरुष जिसका निषेध करे, उसका उत्तम पुरुषके तो सहज ही
निषेध हुआ; उसी प्रकार जिनके वस्त्रादिक उपकरण कहे वे ही जिसका निषेध करें, तब
दिगम्बर धर्ममें तो ऐसी विपरीतताका सहज ही निषेध हुआ।
तथा दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी इसी श्रद्धानके पोषक वचन हैं।
वहाँ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘षट्पाहुड़’’ में ऐसा कहा हैः
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।।। (दर्शनपाहुड़)
अर्थःसम्यग्दर्शन है मूल जिसका ऐसा जिनवर द्वारा उपदेशित धर्म है; उसे सुनकर
हे कर्णसहित पुरुषो! यह मानो किसम्यक्त्वरहित जीव वंदना योग्य नहीं है। जो आप
कुगुरु है उस कुगुरुके श्रद्धान सहित सम्यक्त्वी कैसे हो सकता है? बिना सम्यक्त्व अन्य
धर्म भी नहीं होता। धर्मके बिना वंदने योग्य कैसे होगा?
फि र कहते हैंः
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य
एदे भट्ठा वि भट्ठ सेसं पि जणं विणासंति।।।। (दर्शनपाहुड़)
जो दर्शनमें भ्रष्ट हैं, ज्ञानमें भ्रष्ट हैं, चारित्र-भ्रष्ट हैं; वे जीव भ्रष्टसे भ्रष्ट हैं; और
भी जीव जो उनका उपदेश मानते हैं उन जीवोंका नाश करते हैं, बुरा करते हैं।
फि र कहते हैंः
जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं
ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।१२।। (दर्शनपाहुड़)