Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२१२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अवस्थावाले जीवोंको पूर्वोक्त उपदेश है। जैसेकोई स्त्री विकारभावसे पराये घर जाती थी;
उसे मना किया कि पराये घर मत जा, घरमें बैठी रह। तथा जो स्त्री निर्विकार भावसे
किसीके घर जाकर यथायोग्य प्रवर्ते तो कुछ दोष है नहीं। उसी प्रकार उपयोगरूप परिणति
राग-द्वेषभावसे परद्रव्योंमें प्रवर्तती थी; उसे मना किया कि परद्रव्योंमें प्रवर्तन मत कर, स्वरूपमें
मग्न रह। तथा जो उपयोगरूप परिणति वीतरागभावसे परद्रव्यको जानकर यथायोग्य प्रवर्ते
तो कुछ दोष है नहीं।
फि र वह कहता हैऐसा है तो महामुनि परिग्रहादिक चिंतवनका त्याग किसलिये
करते हैं?
समाधानःजैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण पराये घरोंका त्याग करती है; उसी
प्रकार वीतराग परिणति राग-द्वेषके कारण परद्रव्योंका त्याग करती है। तथा जो व्यभिचारके
कारण नहीं हैं ऐसे पराये घरोंमें जानेका त्याग है नहीं; उसी प्रकार जो राग-द्वेषके कारण
नहीं हैं ऐसे परद्रव्योंको जाननेका त्याग है नहीं।
फि र वह कहता हैजैसे जो स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिकके घर जाती है तो जाये,
बिना प्रयोजन जिस-तिसके घर जाना तो योग्य नहीं है। उसी प्रकार परिणतिको प्रयोजन जानकर
सात तत्त्वोंका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नहीं है?
समाधानःजैसे स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिक या मित्रादिकके भी घर जाये; उसी
प्रकार परिणति तत्त्वोंके विशेष जाननेके कारण गुणस्थानादिक व कर्मादिकको भी जाने। तथा
यहाँ ऐसा जानना कि जैसे शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषोंके स्थान पर न जाये;
यदि परवश वहाँ जाना बन जाये और वहाँ कुशील सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही
है। उसी प्रकार वीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिकके कारण परद्रव्योंमें न लगे; यदि
स्वयमेव उनका जानना हो जाये और वहाँ रागादिक न करे तो परिणति शुद्ध ही है। इसलिये
मुनियोंको स्त्री आदिके परीषह होने पर उनको जानते ही नहीं, अपने स्वरूपका ही जानना
रहता है
ऐसा मानना मिथ्या है। उनको जानते तो हैं, परन्तु रागादिक नहीं करते।
इस प्रकार परद्रव्यको जानते हुए भी वीतरागभाव होता है।ऐसा श्रद्धान करना।
तथा वह कहता हैऐसा है तो शास्त्रमें ऐसा कैसे कहा है कि आत्माका श्रद्धान-
ज्ञान-आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है?
समाधानःअनादिसे परद्रव्यमें आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण था; उसे छुड़ानेके लिये
यह उपदेश है। अपनेमें ही आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण होनेसे परद्रव्यमें राग-द्वेषादि परिणति