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सातवाँ अधिकार ][ २३१
समाधानः — ज्ञानीजनोंको उपवासादिककी इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोगकी इच्छा है;
उपवासादि करनेसे शुद्धोपयोग बढ़ता है, इसलिये उपवासादि करते हैं। तथा यदि उपवासादिकसे
शरीर या परिणामोंकी शिथिलताके कारण शुद्धोपयोगको शिथिल होता जानें तो वहाँ आहारादिक
ग्रहण करते हैं। यदि उपवासादिकसे ही सिद्धि हो तो अजितनाथ आदि तेईस तीर्थंकर दीक्षा
लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम
हुए वैसे बाह्यसाधन द्वारा एक वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया।
प्रश्नः — यदि ऐसा है तो अनशनादिकको तप संज्ञा कैसे हुई?
समाधानः — उन्हें बाह्य तप कहा है। सो बाह्यका अर्थ यह है कि ‘बाहरसे औरोंको
दिखाई दे कि यह तपस्वी है’; परन्तु आप तो फल जैसे अंतरंग परिणाम होगें वैसा ही
पायेगा, क्योंकि परिणामशून्य शरीरकी क्रिया फलदाता नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्न है कि शास्त्रमें तो अकाम-निर्जरा कही है। वहाँ बिना इच्छाके भूख-
प्यास आदि सहनेसे निर्जरा होती है; तो फि र उपवासादि द्वारा कष्ट सहनेसे कैसे निर्जरा न
हो?
समाधानः — अकाम-निर्जरामें भी बाह्य निमित्त तो बिना इच्छाके भूख-प्यासका सहन
करना हुआ है और वहाँ मन्दकषायरूप भाव हो; तो पापकी निर्जरा होती है, देवादि पुण्यका
बन्ध होता है। परन्तु यदि तीव्रकषाय होने पर भी कष्ट सहनेसे पुण्यबन्ध होता हो तो सर्व
तिर्यंचादिक देव ही हों, सो बनता नहीं है। उसी प्रकार इच्छापूर्वक उपवासादि करनेसे वहाँ
भूख-प्यासादि कष्ट सहते हैं, सो यह बाह्य निमित्त है; परन्तु वहाँ जैसा परिणाम हो वैसा फल
पाता है। जैसे अन्नको प्राण कहा उसी प्रकार। तथा इसप्रकार बाह्यसाधन होनेसे अंतरंग तप
की वृद्धि होती है, इसलिये उपचारसे इनको तप कहा है; परन्तु यदि बाह्य तप तो करे और
अंतरंग तप न हो तो उपचारसे भी उसे तपसंज्ञा नहीं है। कहा भी हैः —
कषायविषयाहारो त्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः।।
जहाँ कषाय-विषय और आहारका त्याग किया जाता है उसे उपवास जानना, शेषको
श्रीगुरु लंघन कहते हैं।
यहाँ कहेगा — यदि ऐसा है तो हम उपवासादि नहीं करेंगे?
उससे कहते हैं — उपदेश तो ऊँचा चढ़नेको दिया जाता है; तू उल्टा नीचे गिरेगा