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२५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अन्यथा है? वहाँ अनुमानादि प्रमाणसे बराबर समझे। अथवा उपदेश तो ऐसा है और ऐसा
न मानें तो ऐसा होगा; सो इनमें प्रबल युक्ति कौन है और निर्बल युक्ति कौन है? जो
प्रबल भासित हो उसे सत्य जाने। तथा यदि उपदेशमें अन्यथा सत्य भासित हो, अथवा
उसमें सन्देह रहे, निर्धार न हो; तो जो विशेषज्ञ हों उनसे पूछे और वे उत्तर दें उसका
विचार करे। इसी प्रकार जब तक निर्धार न हो तब तक प्रश्न-उत्तर करे। अथवा
समानबुद्धिके धारक हों उनसे अपना विचार जैसा हुआ हो वैसा कहे और प्रश्न-उत्तर द्वारा
परस्पर चर्चा करे; तथा जो प्रश्नोत्तरमें निरूपण हुआ हो उसका एकान्तमें विचार करे।
इसीप्रकार जब तक अपने अंतरंगमें — जैसा उपदेश दिया था वैसा ही निर्णय होकर
— भाव
भासित न हो तब तक इसी प्रकार उद्यम किया करे।
तथा अन्यमतियों द्वारा जो कल्पित तत्त्वोंका उपदेश दिया गया है, उससे जैन उपदेश
अन्यथा भासित हो व सन्देह हो — तब भी पूर्वोक्त प्रकारसे उद्यम करे।
ऐसा उद्यम करने पर जैसा जिनदेवका उपदेश है वैसा ही सत्य है, मुझे भी इसी
प्रकार भासित होता है — ऐसा निर्णय होता है; क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी हैं नहीं।
यहाँ कोई कहे कि जिनदेव यदि अन्यथावादी नहीं हैं तो जैसा उनका उपदेश है
वैसा ही श्रद्धान कर लें, परीक्षा किसलिये करें?
समाधानः — परीक्षा किये बिना यह तो मानना हो सकता है कि जिनदेवने ऐसा कहा
है सो सत्य है; परन्तु उनका भाव अपनेको भासित नहीं होगा। तथा भाव भासित हुए
बिना निर्मल श्रद्धान नहीं होता; क्योंकि जिसकी किसीके वचनसे ही प्रतीतिकी जाय, उसकी
अन्यके वचनसे अन्यथा भी प्रतीति हो जाय; इसलिये शक्तिअपेक्षा वचनसे की गई प्रतीति
अप्रतीतिवत् है। तथा जिसका भाव भासित हुआ हो, उसे अनेक प्रकारसे भी अन्यथा नहीं
मानता; इसलिये भाव भासित होने पर जो प्रतीति होती है वही सच्ची प्रतीति है।
यहाँ यदि कहोगे कि पुरुषकी प्रमाणतासे वचनकी प्रमाणता की जाती है? तो पुरुषकी
भी प्रमाणता स्वयमेव तो नहीं होती; उसके कुछ वचनोंकी परीक्षा पहले कर ली जाये, तब
पुरुषकी प्रमाणता होती है।
प्रश्नः — उपदेश तो अनेक प्रकारके हैं, किस-किसकी परीक्षा करें?
समाधानः — उपदेशमें कोई उपादेय, कोई हेय, तथा कोई ज्ञेयतत्त्वोंका निरूपण किया
जाता है। उपादेय – हेय तत्त्वोंकी तो परीक्षा कर लेना, क्योंकि इनमें अन्यथापना होनेसे अपना
बुरा होता है। उपादेयको हेय मान लें तो बुरा होगा, हेयको उपादेय मान लें तो बुरा होगा।