Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
लिखना तो अपनी इच्छाके अनुसार अनेक प्रकार है, परन्तु जो अक्षर बोलनेमें आते हैं वे
तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे प्रवर्तते हैं। इसीलिये कहा है कि
‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः।’ इसका
अर्थ यह किजो अक्षरोंका सम्प्रदाय है, सो स्वयंसिद्ध है, तथा उन अक्षरोंसे उत्पन्न सत्यार्थके
प्रकाशक पद उनके समूहका नाम श्रुत है, सो भी अनादि-निधन है। जैसे ‘जीव’ ऐसा अनादि-
निधन पद है सो जीवको बतलानेवाला है। इस प्रकार अपने-अपने सत्य अर्थके प्रकाशक
अनेक पद उनका जो समुदाय सो श्रुत जानना। पुनश्च, जिस प्रकार मोती तो स्वयंसिद्ध
हैं, उनमेंसे कोई थोड़े मोतियोंको, कोई बहुत मोतियोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार
गूँथकर गहना बनाते हैं; उसी प्रकार पद तो स्वयंसिद्ध हैं, उनमेंसे कोई थोड़े पदोंको, कोई
बहुत पदोंको, कोई किसी प्रकार, कोई किसी प्रकार गूँथकर ग्रंथ बनाते हैं। यहाँ मैं भी
उन सत्यार्थपदोंको मेरी बुद्धि अनुसार गूँथकर ग्रंथ बनाता हूँ; मेरी मतिसे कल्पित झूठे अर्थके
सूचक पद इसमें नहीं गूँथता हूँ। इसलिये यह ग्रंथ प्रमाण जानना।
प्रश्न :उन पदोंकी परम्परा इस ग्रन्थपर्यन्त किस प्रकार प्रवर्तमान है ?
समाधान :अनादिसे तीर्थंकर केवली होते आये हैं, उनको सर्वका ज्ञान होता है;
इसलिये उन पदोंका तथा उनके अर्थोंका भी ज्ञान होता है। पुनश्च, उन तीर्थंकर केवलियोंका
दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता है जिससे अन्य जीवोंको पदोंका एवं अर्थोंका ज्ञान होता
है; उसके अनुसार गणधरदेव अंगप्रकीर्णरूप ग्रन्थ गूँथते हैं तथा उनके अनुसार अन्य-अन्य
आचार्यादिक नानाप्रकार ग्रंथादिककी रचना करते हैं। उनका कोई अभ्यास करते हैं, कोई
उनको कहते हैं, कोई सुनते हैं।
इसप्रकार परम्परामार्ग चला आता है।
अब, इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान अवसर्पिणी काल है। उसमें चौबीस तीर्थंकर हुए, जिनमें
श्री वर्द्धमान नामक अन्तिम तीर्थंकरदेव हुए। उन्होंने केवलज्ञान विराजमान होकर जीवोंको
दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश दिया। उसको सुननेका निमित्त पाकर गौतम नामक गणधरने अगम्य
अर्थोंको भी जानकर धर्मानुरागवश अंगप्रकीर्णकोंकी रचना की। फि र वर्द्धमानस्वामी तो मुक्त
हुए। वहाँ पीछे इस पंचमकालमें तीन केवली हुए।
(१) गौतम, (२) सुधर्माचार्य और
(३) जम्बूस्वामी। तत्पश्चात् कालदोषसे केवलज्ञानी होनेका तो अभाव हुआ, परन्तु कुछ काल
तक द्वादशांगके पाठी श्रुतकेवली रहे और फि र उनका भी अभाव हुआ। फि र कुछ काल
तक थोड़े अंगोंके पाठी रहे, पीछे उनका भी अभाव हुआ। तब आचार्यादिकों द्वारा उनके
अनुसार बनाए गए ग्रन्थ तथा अनुसारी ग्रन्थोंके अनुसार बनाए गये ग्रन्थ उनकी ही प्रवृत्ति
रही। उनमें भी कालदोषसे दुष्टों द्वारा कितने ही ग्रन्थोंकी व्युच्छत्ति हुई तथा महान ग्रन्थोंका
अभ्यासादि न होनेसे व्युच्छत्ति हुई। तथा कितने ही महान ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनका बुद्धिकी