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२८२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सहित उपदेश देते हैं; परन्तु केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनेकी अपेक्षा नहीं देते; क्योंकि उसका
आचरण नहीं हो सकता। यहाँ आचरण करनेका प्रयोजन है।
जैसे – अणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है और उसके स्त्री-सेवनादि क्रियाओंमें त्रसहिंसा
होती है। यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रस कहे हैं; परन्तु इसके त्रस मारनेका
अभिप्राय नहीं है और लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस
अपेक्षा उसके त्रसहिंसाका त्याग है।
तथा मुनिके स्थावरहिंसाका भी त्याग कहा है; परन्तु मुनि, पृथ्वी, जलादिमें गमनादि
करते हैं वहाँ सर्वथा त्रसका भी अभाव नहीं है; क्योंकि त्रस जीवोंकी भी अवगाहना इतनी
छोटी होती है कि जो दृष्टिगोचर न हो और उनकी स्थिति पृथ्वी, जलादिकमें ही है – ऐसा
मुनि जिनवाणीसे जानते हैं व कदाचित् अवधिज्ञानादि द्वारा भी जानते हैं; परन्तु उनके प्रमादसे
स्थावर-त्रसहिंसाका अभिप्राय नहीं है। तथा लोकमें भूमि खोदना तथा अप्रासुक जलसे क्रिया
करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है और स्थूल त्रस जीवोंको पीड़ित करनेका नाम
त्रसहिंसा है – उसे नहीं करते; इसलिये मुनिको सर्वथा हिंसाका त्याग कहते हैं। तथा इसीप्रकार
असत्य, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रहका त्याग कहा है।
केवलज्ञानके जाननेकी अपेक्षा तो असत्यवचनयोग बारहवें गुणस्थानपर्यन्त कहा है,
अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्यका ग्रहण तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त है, वेदका उदय नववें गुणस्थान-
पर्यन्त है, अन्तरंग परिग्रह दसवें गुणस्थानपर्यन्त है, बाह्यपरिग्रह समवसरणादि केवलीके भी होता
है; परन्तु (मुनिको) प्रमादसे पापरूप अभिप्राय नहीं है और लोकप्रवृत्तिमें जिन क्रियाओं द्वारा
‘यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है, परिग्रह रखता है’ – इत्यादि नाम
पाता है, वे क्रियाएँ इनके नहीं है; इसलिये असत्यादिका इनके त्याग कहा जाता है।
तथा जिस प्रकार मुनिके मूलगुणोंमें पंचेन्द्रियोंके विषयका त्याग कहा है; परन्तु इन्द्रियोंका
जानना तो मिटता नहीं है और विषयोंमें राग-द्वेष सर्वथा दूर हुआ हो तो यथाख्यातचारित्र
हो जाये सो हुआ नहीं है; परन्तु स्थूलरूपसे विषयेच्छाका अभाव हुआ है और बाह्यविषयसामग्री
मिलानेकी प्रवृत्ति दूर हुई है; इसलिये उनके इन्द्रियविषयका त्याग कहा है।
इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व
लोकप्रवृत्तिके अनुसार त्याग करता है। जैसे – किसीने त्रसहिंसाका त्याग किया, वहाँ
चरणानुयोगमें व लोकमें जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है, केवलज्ञानादि द्वारा
जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसाका त्याग बनता ही नहीं। वहाँ जिस त्रसहिंसाका त्याग