त्याग है, काय द्वारा नहीं प्रवर्तना सो कायसे त्याग है। इसप्रकार अन्य त्याग व ग्रहण होता
है सो ऐसी पद्धति सहित ही होता है ऐसा जानना।
अविरतिका अभाव कहा, सो मुनिको मनके विकल्प होते हैं; परन्तु स्वेच्छाचारी मनकी पापरूप
प्रवृत्तिके अभावसे मन-अविरतिका अभाव कहा है
श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना।
क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगकी ही अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व
ग्रहण करना। करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करनेसे वही जीव ग्यारहवें
गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहले गुणस्थानमें आये, तो वहाँ दातार पात्र-अपात्रका
कैसे निर्णय कर सके?
प्रवृत्ति समान है; तथा यदि कदाचित् सम्यक्त्वीको किसी चिह्न द्वारा ठीक (निर्णय) हो जाये
और वह उसकी भक्ति न करे तो औरोंको संशय होगा कि इसकी भक्ति क्यों नहीं की?
इसप्रकार उसका मिथ्यादृष्टिपना प्रगट हो तब संघमें विरोध उत्पन्न हो; इसलिये यहाँ
व्यवहारसम्यक्त्व-मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जानना।
व्यवहारधर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है,
ऐसा जानना। इसीप्रकार जो जीव बहुत उपवासादि करे उसे तपस्वी कहते हैं; यद्यपि कोई