-
आठवाँ अधिकार ][ ३०५
नौवाँ अधिकार
मोक्षमार्गका स्वरूप
दोहा — शिव उपाय करतें प्रथम, कारन मंगलरूप।
विघन विनाशक सुखकरन, नमौं शुद्ध शिवभूप।।
अब, मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैं। प्रथम, मोक्षमार्गके प्रतिपक्षी जो मिथ्यादर्शनादिका
उनका स्वरूप बतलाया – उन्हें तो दुःखका कारण जानकर, हेय मानकर उनका त्याग करना।
तथा बीचमें उपदेशका स्वरूप बतलाया उसे जानकर उपदेशको यथार्थ समझना। अब, मोक्षके
मार्ग जो सम्यग्दर्शनादि उनका स्वरूप बतलाते हैं – उन्हें सुखरूप, सुखका कारण जानकर, उपादेय
मानकर अंगीकार करना; क्योंकि आत्माका हित मोक्ष ही है; उसीका उपाय आत्माका कर्तव्य
है; इसलिये उसीका उपदेश यहाँ देते हैं।
आत्माका हित मोक्ष ही है
वहाँ, आत्माका हित मोक्ष ही है अन्य नहीं; — ऐसा निश्चय किसप्रकार होता है सो
कहते हैं।
आत्माके नानाप्रकार गुण-पर्यायरूप अवस्थाएँ पायी जाती हैं; उनमें अन्य तो कोई
अवस्था हो, आत्माका कुछ बिगाड़-सुधार नहीं है; एक दुःख-सुख अवस्थासे बिगाड़-सुधार है।
यहाँ कुछ हेतु – दृष्टान्त नहीं चाहिये; प्रत्यक्ष ऐसा ही प्रतिभासित होता है।
लोकमें जितने आत्मा हैं उनके एक उपाय यह पाया जाता है कि दुःख न हो, सुख
हो; तथा अन्य भी जितने उपाय करते हैं वे सब एक इसी प्रयोजनसहित करते हैं दूसरा
प्रयोजन नहीं है। जिनके निमित्तसे दुःख होता जानें उनको दूर करनेका उपाय करते हैं
और जिनके निमित्त सुख होता जानें उनके होनेका उपाय करते हैं।
तथा संकोच – विस्तार आदि अवस्था भी आत्माके ही होती है, व अनेक परद्रव्योंका
भी संयोग मिलता है; परन्तु जिनसे सुख-दुःख होता न जाने, उनके दूर करनेका व होनेका
कुछ भी उपाय कोई नहीं करता।
सो यहाँ आत्मद्रव्यका ऐसा ही स्वभाव जानना। और तो सर्व अवस्थाओंको सह
सकता है, एक दुःखको नहीं सह सकता। परवशतासे दुःख हो तो यह क्या करे, उसे