अवस्था जैसी हो वैसी होओ, उसे स्ववशतासे भी भोगता है; वहाँ स्वभावमें तर्क नहीं है।
आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना।
अपना नाश मानता है, परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दुःख दूर करना चाहता है। इसलिये
एक दुःखरूप पर्यायका अभाव करना ही इसका कर्तव्य है।
आकुलता होती है वह रागादिक कषायभाव होने पर होती है; क्योंकि रागादिभावोंसे यह तो
द्रव्योंको अन्य प्रकार परिणमित करना चाहे और वे द्रव्य अन्य प्रकार परिणमित हों; तब इसके
आकुलता होती है। वहाँ या तो अपने रागादि दूर हों, या आप चाहे उसीप्रकार सर्वद्रव्य
परिणमित हों तो आकुलता मिटे; परन्तु सर्वद्रव्य तो इसके आधीन नहीं हैं। कदाचित् कोई
द्रव्य जैसी इसकी इच्छा हो उसी प्रकार परिणमित हो, तब भी इसकी आकुलता सर्वथा दूर
नहीं होती; सर्व कार्य जैसे यह चाहे वैसे ही हों, अन्यथा न हों, तब यह निराकुल रहे; परन्तु
यह तो हो ही नहीं सकता; क्योंकि किसी द्रव्यका परिणमन किसी द्रव्यके आधीन नहीं है।
इसलिये अपने रागादिभाव दूर होने पर निराकुलता हो, सो यह कार्य बन सकता है; क्योंकि
रागादिभाव आत्माके स्वभाव तो हैं नहीं, औपाधिकभाव हैं, परनिमित्तसे हुए हैं और वह निमित्त
मोहकर्मका उदय है; उसका अभाव होने पर सर्व रागादिक विलय हो जायें तब आकुलताका
नाश होने पर दुःख दूर हो, सुखकी प्राप्ति हो। इसलिये मोहकर्मका नाश हितकारी है।
आकुलता होती है। अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तुका स्वभाव नहीं जानता तब रागादिरूप होकर
प्रवर्तता है, वहाँ आकुलता होती है।
नाश होने पर उनका बल नहीं है; अन्तर्मुहूर्तकालमें अपने आप नाशको प्राप्त होते हैं; परन्तु