Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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नौवाँ अधिकार ][ ३०७
सहकारी कारण भी दूर हो जाये तब प्रगटरूप निराकुलदशा भासित होती है। वहाँ केवलज्ञानी
भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहे जाते हैं।
तथा अघाति कर्मोंके उदयके निमित्तसे शरीरादिकका संयोग होता है; वहाँ मोहकर्मका
उदय होनेसे शरीरादिका संयोग आकुलताको बाह्य सहकारी कारण है। अन्तरंग मोहके उदयसे
रागादिक हों और बाह्य अघाति कर्मोंके उदयसे रागादिकके कारण शरीरादिकका संयोग हो
तब आकुलता उत्पन्न होती है। तथा मोहके उदयका नाश होने पर भी अघाति कर्मका उदय
रहता है, वह कुछ भी आकुलता उत्पन्न नहीं कर सकता; परन्तु पूर्वमें आकुलताका सहकारी
कारण था, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश आत्माको इष्ट ही है। केवलीको इनके होने
पर भी कुछ दुःख नहीं है, इसलिये इनके नाशका उद्यम भी नहीं है; परन्तु मोहका नाश
होने पर यह कर्म अपने आप थोड़े ही कालमें सर्वनाशको प्राप्त हो जाते हैं।
इसप्रकार सर्व कर्मोंका नाश होना आत्माका हित है। तथा सर्व कर्मके नाशका ही
नाम मोक्ष है। इसलिये आत्माका हित एक मोक्ष ही है और कुछ नहींऐसा निश्चय करना।
यहाँ कोई कहेसंसारदशामें पुण्यकर्मका उदय होने पर भी जीव सुखी होता है; इसलिये
केवल मोक्ष ही हित है, ऐसा किसलिये कहते हैं?
समाधानःसंसारदशामें सुख तो सर्वथा है ही नहीं; दुःख ही है। परन्तु किसीके कभी
बहुत दुःख होता है, किसीके कभी थोड़ा दुःख होता है; सो पूर्वमें बहुत दुःख था व अन्य
जीवोंके बहुत दुःख पाया जाता है, उस अपेक्षासे थोड़े दुःखवालेको सुखी कहते हैं। तथा
उसी अभिप्रायसे थोड़े दुःखवाला अपनेको सुखी मानता है; परमार्थसे सुख है नहीं। तथा
यदि थोड़ा भी दुःख सदाकाल रहता हो तो उसे भी हितरूप ठहरायें, सो वह भी नहीं है;
थोड़े काल ही पुण्यका उदय रहता है और वहाँ थोड़ा दुःख होता है, पश्चात् बहुत दुःख
हो जाता है; इसलिये संसारअवस्था हितरूप नहीं है।
जैसेकिसीको विषमज्वर है; उसको कभी असाता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती
है। थोड़ी असाता हो तो वह अपनेको अच्छा मानता है। लोग भी कहते हैंअच्छा है;
परन्तु परमार्थसे जबतक ज्वरका सद्भाव है तबतक अच्छा नहीं है। उसी प्रकार संसारीको
मोहका उदय है; उसको कभी आकुलता बहुत होती है, कभी थोड़ी होती है। थोड़ी आकुलता
हो तब वह अपनेको सुखी मानता है। लोग भी कहते हैं
सुखी है; परन्तु परमार्थसे जब
तक मोहका सद्भाव है तब तक सुख नहीं है।
तथा सुनो, संसारदशामें भी आकुलता घटने पर सुख नाम पाता है, आकुलता बढ़ने
पर दुःख नाम पाता है; कहीं बाह्यसामग्रीसे सुख-दुःख नहीं है। जैसेकिसी दरिद्रीको किंचित्