तथा आकुलता घटना-बढ़ना भी बाह्य सामग्रीके अनुसार नहीं है, कषायभावोंके घटने-
है। तथा किसीको किसीने बहुत बुरा कहा उसे क्रोध नहीं हुआ तो उसको आकुलता नहीं
होती; और थोड़ी बातें कहनेसे ही क्रोध हो आये तो उसको आकुलता बहुत होती है।
तथा जैसे गायको बछड़ेसे कुछ प्रयोजन नहीं है, परन्तु मोह बहुत है, इसलिये उसकी रक्षा
करनेकी बहुत आकुलता होती है; तथा सुभट के शरीरादिकसे बहुत कार्य सधते हैं, परन्तु
रणमें मानादिकके कारण शरीरादिकसे मोह घट जाये, तब मरनेकी भी थोड़ी आकुलता होती
है। इसलिये ऐसा जानना कि संसार-अवस्थामें भी आकुलता घटने-बढ़नेसे ही सुख-दुःख माने
जाते हैं। तथा आकुलताका घटना-बढ़ना रागादिक कषाय घटने-बढ़नेके अनुसार है।
आकुलता घटती है, तब सुख मानता है
है कि मुझे परद्रव्यके निमित्तसे सुख-दुःख होते हैं। ऐसा जानना भ्रम ही है। इसलिये यहाँ
ऐसा विचार करना कि संसार-अवस्थामें किंचित् कषाय घटनेसे सुख मानते हैं, उसे हित जानते
हैं;
कषायसे इच्छा उत्पन्न हो उसे पूर्ण करनेकी आकुलता होती है; कदापि सर्वथा निराकुल नहीं
हो सकता; अभिप्रायमें तो अनेक प्रकारकी आकुलता बनी ही रहती है। और कोई आकुलता
मिटानेके बाह्य उपाय करे; सो प्रथम तो कार्य सिद्ध नहीं होता; और यदि भवितव्ययोगसे
वह कार्य सिद्ध हो जाये तो तत्काल अन्य आकुलता मिटानेके उपायमें लगता है। इसप्रकार