नये-नये विषयसेवनादि कार्योंमें किसलिये प्रवर्त्तता है? इसलिये संसार-अवस्थामें पुण्यके उदयसे
इन्द्र-अहमिन्द्रादि पद प्राप्त करे तो भी निराकुलता नहीं होती, दुःखी ही रहता है। इसलिये
संसार-अवस्था हितकारी नहीं है।
मोक्ष-अवस्था ही हितकारी है। पहले भी संसार-अवस्थाके दुःखका और मोक्ष-अवस्थाके सुखका
विशेष वर्णन किया है, वह इसी प्रयोजनके अर्थ किया है। उसे भी विचार कर मोक्षको
हितरूप जानकर मोक्षका उपाय करना। सर्व उपदेशका तात्पर्य इतना है।
कहो। यदि प्रथम दोनों कारण मिलने पर बनता है तो हमें उपदेश किसलिये देते हो?
और पुरुषार्थसे बनता है तो उपदेश सब सुनते हैं, उनमें कोई उपाय कर सकता है, कोई
नहीं कर सकता; सो कारण क्या?
तीन कारण कहे उनमें काललब्धि व होनहार तो कोई वस्तु नहीं है; जिस कालमें कार्य बनता
है वही काललब्धि और जो कार्य हुआ वही होनहार। तथा जो कर्मके उपशमादिक हैं वह
पुद्गलकी शक्ति है उसका आत्मा कर्ताहर्ता नहीं है। तथा पुरुषार्थसे उद्यम करते हैं सो यह
आत्माका कार्य है; इसलिए आत्माको पुरुषार्थसे उद्यम करनेका उपदेश देते हैं।
जिस कारणसे कार्यकी सिद्धि हो अथवा नहीं भी हो, उस कारणरूप उद्यम करे, वहाँ अन्य
कारण मिलें तो कार्यसिद्धि होती है, न मिलें तो सिद्धि नहीं होती।
होनहार भी हुए और कर्मके उपशमादि हुए हैं तो वह ऐसा उपाय करता है। इसलिये जो