उपायका पुरुषार्थ बनता है। इसलिये मुख्यतासे तो तत्त्वनिर्णयमें उपयोग लगानेका पुरुषार्थ
करना। तथा उपदेश भी देते हैं, सो यही पुरुषार्थ करानेके अर्थ दिया जाता है, तथा इस
पुरुषार्थसे मोक्षके उपायका पुरुषार्थ अपने आप सिद्ध होगा।
माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता
है। मोक्षकी सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी उक्ति किसलिये बनाये? सांसारिक कार्योंमें अपने
पुरुषार्थसे सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थसे उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो
बैठा; इसलिए जानते हैं कि मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर
उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असम्भव है।
हीनाधिक होती है; इसलिये उनका उदय भी मन्द-तीव्र होता है। उनके निमित्तसे नवीन बन्ध
भी मन्द-तीव्र होता है। इसलिये संसारी जीवोंको कर्मोदयके निमित्तसे कभी ज्ञानादिक बहुत
प्रगट होते हैं; कभी थोड़े प्रगट होते हैं; कभी रागादिक मन्द होते हैं, कभी तीव्र होते हैं।
इसप्रकार परिवर्तन होता रहता है।
तीव्र उदय होनेसे तो विषयकषायादिकके कार्योंमें ही प्रवृत्ति होती है। तथा रागादिकका मन्द
उदय होनेसे बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बने और स्वयं पुरुषार्थ करके उन उपदेशादिकमें
उपयोगको लगाये तो धर्मकार्योमें प्रवृत्ति हो; और निमित्त न बने व स्वयं पुरुषार्थ न करे
तो अन्य कार्योंमें ही प्रवर्ते, परन्तु मन्द रागादिसहित प्रवर्ते।