Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
नौवाँ अधिक ार ][ ३१५
तथा जो किसी लक्ष्यमें तो हो और किसीमें न हो, ऐसे लक्ष्यके एकदेशमें पाया जाये –
ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये वहाँ अव्याप्तिपना जानना। जैसे – आत्माका लक्षण केवलज्ञानादिक
कहा जाये; सो केवलज्ञान किसी आत्मामें तो पाया जाता है, किसीमें नहीं पाया जाता; इसलिये
यह ‘अव्याप्त’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्माको पहिचाननेसे अल्पज्ञानी आत्मा नहीं होगा;
यह दोष लगेगा।
तथा जो लक्ष्यमें पाया ही नहीं जाये, ऐसा लक्षण जहाँ कहा जाये – वहाँ असम्भवपना
जानना। जैसे – आत्माका लक्षण जड़पना कहा जाये; सो प्रत्यक्षादि प्रमाणसे यह विरुद्ध है;
क्योंकि यह ‘असम्भव’ लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे पुद्गलादिक आत्मा हो जायेंगे
और आत्मा है वह अनात्मा हो जायेगा; यह दोष लगेगा।
इस प्रकार अतिव्याप्त, अव्याप्त तथा असम्भवी लक्षण हो वह लक्षणाभास है। तथा
लक्ष्यमें तो सर्वत्र पाया जाये और अलक्ष्यमें कहीं न पाया जाये वह सच्चा लक्षण है। जैसे –
आत्माका स्वरूप चैतन्य है; सो यह लक्षण सर्व ही आत्मामें तो पाया जाता है, अनात्मामें कहीं
नहीं पाया जाता; इसलिये यह सच्चा लक्षण है। इसके द्वारा आत्मा माननेसे आत्मा-अनात्माका
यथार्थज्ञान होता है; कुछ दोष नहीं लगता। इसप्रकार लक्षणका स्वरूप उदाहरण मात्र कहा।
अब, सम्यग्दर्शनादिकका सच्चा लक्षण कहते हैंः –
सम्यदर्शनका सच्चा लक्षण
विपरीताभिनिवेशरहित जीवादिकतत्त्वार्थश्रद्धान वह सम्यग्दर्शनका लक्षण है। जीव,
अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष – यह सात तत्त्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान – ‘ऐसा
ही है, अन्यथा नहीं है’ – ऐसा प्रतीतिभाव, सो तत्त्वार्थश्रद्धान; तथा विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा
अभिप्राय उससे रहित; सो सम्यग्दर्शन है।
यहाँ विपरीताभिनिवेशके निराकरणके अर्थ ‘सम्यक्’ पद कहा है, क्योंकि ‘सम्यक्’ ऐसा
शब्द प्रशंसावाचक है; वहाँ श्रद्धानमें विपरीताभिनिवेशका अभाव होने पर ही प्रशंसा सम्भव
है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न है कि ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ यह दो पद कहे, उनका प्रयोजन क्या?
समाधानः – ‘तत्’ शब्द है सो ‘यत्’ शब्दकी अपेक्षा सहित है। इसलिये जिसका प्रकरण
हो उसे तत् कहा जाता है और जिसका जो भाव अर्थात् स्वरूप सो तत्त्व जानना। कारण
कि ‘तस्य भावस्तत्त्व’ ऐसा तत्त्व शब्दका समास होता है। तथा जो जाननेमें आये ऐसा ‘द्रव्य’
व ‘गुण-पर्याय’ उसका नाम अर्थ है। तथा ‘तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः’ तत्त्व अर्थात् अपना स्वरूप,