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पहला अधिकार ][ ३४१
परिशिष्ट २
रहस्यपूर्ण चिट्ठी
[ आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी द्वारा लिखित ]
सिद्ध श्री मुलताननगर महा शुभस्थानमें साधर्मी भाई अनेक उपमा योग्य अध्यात्मरस
रोचक भाई श्री खानचंदजी, गंगाधरजी, श्रीपालजी, सिद्धारथजी, अन्य सर्व साधर्मी योग्य लिखी
टोडरमलके श्री प्रमुख विनय शब्द अवधारण करना।
यहाँ यथासम्भव आनन्द है, तुम्हारे चिदानन्दघनके अनुभवसे सहजानन्दकी वृद्धि
चाहिये।
अपरंच तुम्हारा एक पत्र भाईजी श्री रामसिंहजी भुवानीदासजी पर आया था। उसके
समाचार जहानाबादसे मुझको अन्य साधर्मियोंने लिखे थे।
सो भाईजी, ऐसे प्रश्न तुम सरीखे ही लिखें। इस वर्तमानकालमें अध्यात्मरसके रसिक
बहुत थोड़े हैं। धन्य हैं जो स्वात्मानुभवकी बात करते हैं। वही कहा हैः –
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
– पद्मनंदिपंचविंशतिका (एकत्वाशीतिः २३)
अर्थः – जिस जीवने प्रसन्न चित्तसे इस चेतनस्वरूप आत्माकी बात भी सुनी है, वह
निश्चयसे भव्य है। अल्पकालमें मोक्षका पात्र है।
सो भाईजी, तुमने प्रश्न लिखे उनके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार कुछ लिखते हैं सो
जानना और अध्यात्म – आगमकी चर्चागर्भित पत्र तो शीघ्र शीघ्र दिया करें, मिलाप तो कभी
होगा तब होगा और निरन्तर स्वरूपानुभवनका अभ्यास रखोगेजी। श्रीरस्तु।
अब, स्वानुभवदशामें प्रत्यक्ष-परोक्षादिक प्रश्नोंके उत्तर स्वबुद्धि अनुसार लिखते हैं।
वहाँ प्रथम ही स्वानुभवका स्वरूप जाननेके निमित्त लिखते हैंः –
जीव पदार्थ अनादिसे मिथ्यादृष्टि है। वहाँ स्व-परके यथार्थरूपसे विपरीत श्रद्धानका
नाम मिथ्यात्व है। तथा जिसकाल किसी जीवके दर्शनमोहके उपशम-क्षय-क्षयोपशमसे स्व-परके
यथार्थ श्रद्धानरूप तत्त्वार्थश्रद्धान हो तब जीव सम्यक्त्वी होता है; इसलिये स्व-परके श्रद्धानमें
शुद्धात्मश्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है।
तथा यदि स्व-परका श्रद्धान नहीं है और जिनमतमें कहे जो देव, गुरु, धर्म उन्हींको