Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३४२ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
मानता है; व सप्त तत्त्वोंको मानता है; अन्यमतमें कहे देवादि व तत्त्वादिको नहीं मानता है;
तो इसप्रकार केवल व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वी नाम नहीं पाता; इसलिये स्व-पर भेदविज्ञानसहित
जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो उसीको सम्यक्त्व जानना।
तथा ऐसा सम्यक्त्वी होने पर जो ज्ञान पंचेन्द्रिय व छट्ठे मनके द्वारा क्षयोपशमरूप
मिथ्यात्वदशामें कुमति-कुश्रुतिरूप हो रहा था, वही ज्ञान अब मतिश्रुतरूप सम्यग्ज्ञान हुआ।
सम्यक्त्वी जितना कुछ जाने वह जानना सर्व सम्यग्ज्ञानरूप है।
यदि कदाचित् घट-पटादिक पदार्थोंको अयथार्थ भी जाने तो वह आवरणजनित
औदयिक अज्ञानभाव है। जो क्षयोपशमरूप प्रगट ज्ञान है वह तो सर्व सम्यग्ज्ञान ही है,
क्योंकि जाननेमें विपरीतरूप पदार्थोंको नहीं साधता। सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञानका अंश
है; जैसे थोड़ा-सा मेघपटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है, वह सर्व प्रकाशका
अंश है।
जो ज्ञान मति-श्रुतरूप हो प्रवर्तता है वही ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञानरूप होता है;
सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षा तो जाति एक है।
तथा इस सम्यक्त्वीके परिणाम सविकल्प तथा निर्विकल्प होकर दो प्रकार प्रवर्ते हैं।
वहाँ जो परिणाम विषय-कषायादिरूप व पूजा, दान, शास्त्राभ्यासादिकरूप प्रवर्तता है, उसे
सविकल्परूप जानना।
यहाँ प्रश्नःशुभाशुभरूप परिणमित होते हुए सम्यक्त्वका अस्तित्व कैसे पाया जाय?
समाधानःजैसे कोई गुमाश्ता सेठके कार्यमें प्रवर्तता है, उस कार्यको अपना भी कहता
है, हर्ष-विषादको भी प्राप्त होता है, उस कार्यमें प्रवर्तते हुए अपनी और सेठकी जुदाईका
विचार नहीं करता; परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य
करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि सेठके धनको चुराकर अपना माने तो गुमाश्ता चोर हुआ।
उसी प्रकार कर्मोदयजनित शुभाशुभरूप कार्यको करता हुआ तद्रूप परिणमित हो; तथापि
अंतरंगमें ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत
संयमको भी
अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय। सो ऐसे सविकल्प परिणाम होते हैं।
अब, सविकल्पके ही द्वारा निर्विकल्प परिणाम होनेका विधान कहते हैंः
वही सम्यक्त्वी कदाचित् स्वरूपध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान
स्व-परका करे; नोकर्मद्रव्यकर्म-भावकर्मरहित केवल चैतन्य-चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने;