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रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ][ ३४३
पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है; वहाँ अनेक प्रकार
निजस्वरूपमें अहंबुद्धि धरता है। चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादि विचार होने पर
सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है; तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट जाय,
केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्व परिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-
ज्ञानादिकका व नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।
चैतन्यस्वरूप जो सविकल्पसे निश्चय किया था, उसहीमें व्याप्त-व्यापकरूप होकर इसप्रकार
प्रवर्तता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया। सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव
है। बड़े नयचक्र ग्रन्थमें ऐसा ही कहा है : –
तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण।
णो आराइणसमये पच्चक्खोअणुहवो जह्म।।२६६।।
अर्थः – तत्त्वके अवलोकन (अन्वेषण) का जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्माको
युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने। पश्चात् आराधनसमय जो अनुभवकाल उसमें नय-
प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है।
जैसे – रत्नको खरीदनेमें अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं, तब विकल्प
नहीं है – पहिननेका सुख ही है। इसप्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्प अनुभव होता है।
तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मनके द्वारा प्रवर्तता था, वह ज्ञान सब ओरसे
सिमटकर इस निर्विकल्प अनुभवमें केवल स्वरूपसन्मुख हुआ। क्योंकि वह ज्ञान क्षयोपशमरूप
है, इसलिये एक कालमें एक ज्ञेयको ही जानता है, वह ज्ञान स्वरूप जाननेको प्रवर्तित हुआ
तब अन्यका जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक
विकार हों तो भी स्वरूपध्यानीको कुछ खबर नहीं – इसप्रकार मतिज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ।
तथा नयादिकके विचार मिटने पर श्रुतज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ।
ऐसा वर्णन समयसारकी टीका आत्मख्यातिमें है तथा आत्मावलोकनादिमें है। इसीलिये
निर्विकल्प अनुभवको अतीन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि इन्द्रियोंका धर्म तो यह है कि स्पर्श, रस,
गंध, वर्ण, शब्दको जानें, वह यहाँ नहीं है; और मनका धर्म यह है कि अनेक विकल्प
करे, वह यहाँ नहीं है; इसलिये यद्यपि जो ज्ञान इन्द्रिय – मनमें प्रवर्तता था, वही ज्ञान अनुभवमें
प्रवर्तता है; तथापि इस ज्ञानको अतीन्द्रिय कहते हैं।
तथा इस स्वानुभवको मन द्वारा हुआ भी कहते हैं, क्योंकि इस अनुभवमें मतिज्ञान-
श्रुतज्ञान ही हैं, अन्य कोई ज्ञान नहीं है।