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३४४ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
मति-श्रुतज्ञान इन्द्रिय-मनके अवलम्बन बिना नहीं होता, सो यहाँ इन्द्रियका तो अभाव
ही है, क्योंकि इन्द्रियका विषय मूर्तिक पदार्थ ही है। तथा यहाँ मनज्ञान है, क्योंकि मनका
विषय अमूर्तिक पदार्थ भी है, इसलिये यहाँ मन-सम्बन्धी परिणाम स्वरूपमें एकाग्र होकर अन्य
चिन्ताका निरोध करते हैं, इसलिये इसे मन द्वारा कहते हैं। ‘‘एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्’’
ऐसा ध्यानका भी लक्षण ऐसे अनुभव दशामें सम्भव है।
तथा समयसार नाटकके कवित्तमें कहा हैः –
वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावै विश्राम।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याकौ नाम।।
इसप्रकार मन बिना जुदे ही परिणाम स्वरूपमें प्रवर्तित नहीं हुए, इसलिये स्वानुभवको
मनजनित भी कहते हैं; अतः अतीन्द्रिय कहनेमें और मनजनित कहनेमें कुछ विरोध नहीं है,
विवक्षाभेद है।
तथा तुमने लिखा कि ‘‘आत्मा अतीन्द्रिय है, इसलिये अतीन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण किया
जाता है;’’ सो (भाईजी) मन अमूर्तिकका भी ग्रहण करता है, क्योंकि मति-श्रुतज्ञानका विषय
सर्वद्रव्य कहे हैं। उक्तं च तत्त्वार्थ सूत्रेः –
‘‘मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।’’ (१ – २६)
तथा तुमने प्रत्यक्ष – परोक्षका प्रश्न लिखा सो भाईजी, प्रत्यक्ष – परोक्ष तो सम्यक्त्वके भेद
हैं नहीं। चौथे गुणस्थानमें सिद्धसमान क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है, इसलिये सम्यक्त्व तो केवल
यथार्थ श्रद्धानरूप ही है। वह (जीव) शुभाशुभकार्य करता भी रहता है। इसलिये तुमने जो
लिखा था कि ‘‘निश्चयसम्यक्त्व प्रत्यक्ष है और व्यवहारसम्यक्त्व परोक्ष है’’, सो ऐसा नहीं है।
सम्यक्त्वके तो तीन भेद हैं – वहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व तो निर्मल हैं, क्योंकि वे
मिथ्यात्वके उदयसे रहित हैं और क्षयोपशमसम्यक्त्व समल है, क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसे
सहित है। परन्तु इस सम्यक्त्वमें प्रत्यक्ष – परोक्ष कोई भेद तो नहीं हैं।
क्षायिक सम्यक्त्वीके शुभाशुभरूप प्रवर्तते हुए व स्वानुभवरूप प्रवर्तते हुए सम्यक्त्वगुण
तो समान ही है, इसलिये सम्यक्त्वके तो प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद नहीं मानना।
तथा प्रमाणके प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद हैं, सो प्रमाण सम्यग्ज्ञान है; इसलिये मतिज्ञान-श्रुतज्ञान
तो परोक्षप्रमाण हैं, अवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण हैं। ‘‘आद्ये परोक्षं प्रत्यक्षमन्यत्’’
(तत्त्वार्थसूत्र अ० १, सूत्र ११-१२) ऐसा सूत्रका वचन है। तथा तर्कशास्त्रमें प्रत्यक्ष-परोक्षका