Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३४६ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
जैसा आत्माका स्वरूप कहा है, उसे वैसा जानकर उसमें परिणामोंको मग्न करता है, इसलिये
आगम परोक्षप्रमाण कहते हैं। अथवा ‘‘मैं आत्मा ही हूँ, क्योंकि मुझमें ज्ञान है; जहाँ-जहाँ
ज्ञान है वहाँ-वहाँ आत्मा है
जैसे सिद्धादिक हैं; तथा जहाँ आत्मा नहीं है वहाँ ज्ञान भी नहीं
हैजैसे मृतक कलेवरादिक हैं।’’ इसप्रकार अनुमान द्वारा वस्तुका निश्चय करके उसमें
परिणाम मग्न करता है, इसलिये अनुमान परोक्षप्रमाण कहा जाता है। अथवा आगम-
अनुमानादिक द्वारा जो वस्तु जाननेमें आयी उसीको याद रखकर उसमें परिणाम मग्न करता
है, इसलिये स्मृति कही जाती है;
इत्यादि प्रकारसे स्वानुभवमें परोक्षप्रमाण द्वारा ही आत्माका
जानना होता है। वहाँ पहले जानना होता है, पश्चात् जो स्वरूप जाना उसीमें परिणाम मग्न
होते हैं, परिणाम मग्न होने पर कुछ विशेष जानपना होता नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्नःयदि सविकल्प-निर्विकल्पमें जाननेका विशेष नहीं है तो अधिक आनन्द
कैसे होता है?
उसका समाधानःसविकल्प दशामें ज्ञान अनेक ज्ञेयोंको जाननेरूप प्रवर्तता था,
निर्विकल्पदशामें केवल आत्माका ही जानना है; एक तो यह विशेषता है। दूसरी विशेषता
यह है कि जो परिणाम नाना विकल्पोंमें परिणमित होता था वह केवल स्वरूपसे ही तादात्म्यरूप
होकर प्रवृत्त हुआ। दूसरी यह विशेषता हुई।
ऐसी विशेषताएँ होने पर कोई वचनातीत ऐसा अपूर्व आनन्द होता है जो कि विषय-
सेवनमें उसकी जातिका अंश भी नहीं है, इसलिये उस आनन्दको अतीन्द्रिय कहते हैं।
यहाँ फि र प्रश्नःअनुभवमें भी आत्मा परोक्ष ही है, तो ग्रन्थोंमें अनुभवको प्रत्यक्ष कैसे
कहते हैं? ऊपरकी गाथामें ही कहा है ‘पच्चखो अणुहवो जम्हा’ सो कैसे है?
उसका समाधानःअनुभवमें आत्मा तो परोक्ष ही है, कुछ आत्माके प्रदेश आकार तो
भासित होते नहीं हैं; परन्तु स्वरूपमें परिणाम मग्न होनेसे जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष
है। स्वानुभव स्वाद कुछ आगम
अनुमानादिक परोक्षप्रमाण द्वारा नहीं जानता है, आप ही
अनुभवके रसस्वादको वेदता है। जैसे कोई अंध-पुरुष मिश्रीको आस्वादता है; वहाँ मिश्रीके
आकारादि तो परोक्ष हैं, जो जिह्वा से स्वाद लिया है वह स्वाद प्रत्यक्ष है
वैसे स्वानुभवमें
आत्मा परोक्ष है, जो परिणामसे स्वाद आया वह स्वाद प्रत्यक्ष है;ऐसा जानना।
अथवा जो प्रत्यक्षकी ही भाँति हो उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोकमें कहते
हैं कि ‘‘हमने स्वप्नमें अथवा ध्यानमें अमुक पुरुषको प्रत्यक्ष देखा’’; वहाँ कुछ प्रत्यक्ष देखा
नहीं है, परन्तु प्रत्यक्षकी ही भाँति प्रत्यक्षवत् यथार्थ देखा, इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा जाता