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३४८ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
हुए हैं, तेरहवें गुणस्थानमें आत्माके ज्ञानादिक गुण सर्वथा प्रगट होते हैं; और जैसे दृष्टान्तोंकी
एक जाति है वैसे ही जितने गुण अव्रत-सम्यग्दृष्टि के प्रगट हुए हैं, उनकी और तेरहवें
गुणस्थानमें जो गुण प्रगट होते हैं, उनकी एक जाति है।
वहाँ तुमने प्रश्न लिखा कि एक जाति है तो जिसप्रकार केवली सर्वज्ञेयोंको प्रत्यक्ष जानते
हैं उसीप्रकार चौथे गुणस्थानवाला भी आत्माको प्रत्यक्ष जानता होगा?
उत्तरः – भाईजी, प्रत्यक्षताकी अपेक्षा एक जाति नहीं है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा एक
जाति है। चौथे गुणस्थानवालेको मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान है और तेरहवें गुणस्थान वालेको
केवलरूप सम्यग्ज्ञान है। तथा एकदेश सर्वदेशका अन्तर तो इतना ही है कि मति-श्रुतज्ञानवाला
अमूर्तिक वस्तुको अप्रत्यक्ष और मूर्तिक वस्तुको भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष, किंचित् अनुक्रमसे जानता
है तथा सर्वथा सर्व वस्तुको केवलज्ञान युगपत् जानता है; वह परोक्ष जानता है, यह प्रत्यक्ष
जानता है इतना ही विशेष है। और सर्वप्रकार एक ही जाति कहें तो जिसप्रकार केवली
युगपत् प्रत्यक्ष अप्रयोजनरूप ज्ञेयको निर्विकल्परूप जानते हैं, उसीप्रकार यह भी जाने – ऐसा
तो है नहीं; इसलिये प्रत्यक्ष-परोक्षका विशेष जानना।
उक्तं च अष्टसहस्री मध्येः –
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्।।
(अष्टसहस्री, दशमः परिच्छेदः १०५)
अर्थः – स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान – यह दोनों सर्व तत्त्वोंका प्रकाशन
करनेवाले हैं। विशेष इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतज्ञान परोक्ष है, परन्तु वस्तु
है सो और नहीं है।
तथा तुमने निश्चयसम्यक्त्वका स्वरूप और व्यवहारसम्यक्त्वका स्वरूप लिखा है सो सत्य
है, परन्तु इतना जानना कि सम्यक्त्वीके व्यवहारसम्यक्त्वमें व अन्य कालमें अन्तरङ्गनिश्चयसम्यक्त्व
गर्भित है, सदैव गमनरूप रहता है।
तथा तुमने लिखा – कोई साधर्मी कहता है कि आत्माको प्रत्यक्ष जाने तो कर्मवर्गणाको
प्रत्यक्ष क्यों न जाने?
सो कहते हैं कि आत्माको तो प्रत्यक्ष केवली ही जानते हैं, कर्मवर्गणाकौ अवधिज्ञानी
भी जानते हैं।