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३५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परमार्थवचनिका
[ कविवर पं० बनारसीदासजी रचित ]
एक जीवद्रव्य, उसके अनंत गुण, अनंत पर्यायें, एक-एक गुणके असंख्यात प्रदेश,
एक-एक प्रदेशमें अनन्त कर्मवर्गणाएँ, एक-एक कर्मवर्गणामें अनंत-अनंत पुद्गलपरमाणु, एक-
एक पुद्गलपरमाणु अनंत गुण अनंत पर्यायसहित विराजमान।
यह एक संसारावस्थित जीवपिण्डकी अवस्था। इसीप्रकार अनंत जीवद्रव्य सपिण्डरूप
जानना। एक जीवद्रव्य अनंत-अनंत पुद्गलद्रव्यसे संयोगित (संयुक्त) मानना।
उसका विवरण – अन्य अन्यरूप जीवद्रव्यकी परिणति, अन्य अन्यरूप पुद्गलद्रव्यकी
परिणति।
उसका विवरण – एक जीवद्रव्य जिसप्रकारकी अवस्था सहित नाना आकाररूप परिणमित
होता है वह प्रकार अन्य जीवसे नहीं मिलता; उसका और प्रकार है। इसीप्रकार अनंतानंतरूप
जीवद्रव्य अनंतानंतस्वरूप अवस्थासहित वर्त रहे हैं। किसी जीवद्रव्यके परिणाम किसी अन्य
जीवद्रव्यसे नहीं मिलते। इसीप्रकार एक पुद्गलपरमाणु एक समयमें जिसप्रकारकी अवस्था धारण
करता है, वह अवस्था अन्य पुद्गलपरमाणुद्रव्यसे नहीं मिलती। इसलिये पुद्गल (परमाणु)
द्रव्यकी भी अन्य-अन्यता जानना।
अब, जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य एकक्षेत्रावगाही अनादिकालके हैं, उनमें विशेष इतना कि
जीवद्रव्य एक, पुद्गलपरमाणुद्रव्य अनंतानंत, चलाचलरूप, आगमनगमनरूप, अनंताकार
परिणमनरूप, बन्धमुक्ति शक्तिसहित वर्तते हैं।
अब, जीवद्रव्यकी अनंती अवस्थाएँ, उनमें तीन अवस्थाएँ मुख्य स्थापित कीं – एक
अशुद्ध अवस्था, एक शुद्धाशुद्धरूप मिश्र अवस्था, एक शुद्ध अवस्था – यह तीन अवस्थाएँ संसारी
जीवद्रव्यकी। संसारातीत सिद्ध अनवस्थितरूप कहे जाते हैं।
अब तीनों अवस्थाओंका विचार – एक अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य, एक शुद्ध निश्चयात्मक
द्रव्य, एक मिश्र निश्चयात्मक द्रव्य। अशुद्ध निश्चयद्रव्यको सहकारी अशुद्ध व्यवहार, मिश्रद्रव्यको
सहकारी मिश्रव्यवहार, शुद्ध द्रव्यको सहकारी शुद्ध व्यवहार।