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परमार्थवचनिका ][ ३५१
अब, निश्चय-व्यवहारका विवरण लिखते हैंः –
निश्चय तो अभेदरूप द्रव्य, व्यवहार द्रव्यके यथास्थित भाव। परन्तु विशेष इतना कि –
जितने काल संसारावस्था उतने काल व्यवहार कहा जाता है, सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं,
क्योंकि संसार व्यवहार एकरूप बतलाया है। संसारी सो व्यवहारी, व्यवहारी सो संसारी।
अब, तीनों अवस्थाओंका विवरण लिखते हैंः –
जितने काल मिथ्यात्व अवस्था, उतने काल अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्ध-व्यवहारी।
सम्यग्दृष्टि होते ही चतुर्थ गुणस्थानमें बारहवें गुणस्थानक पर्यंत मिश्र निश्चयात्मक द्रव्य
मिश्रव्यवहारी। केवलज्ञानी शुद्धनिश्चयात्मक शुद्धव्यवहारी।
अब, निश्चय तो द्रव्यका स्वरूप, व्यवहार संसारावस्थित भाव, उसका
विवरण कहते हैंः –
मिथ्यादृष्टि जीव अपना स्वरूप नहीं जानता, इसलिये परस्वरूपमें मग्न होकर कार्य मानता
है; वह कार्य करता हुआ अशुद्ध व्यवहारी कहा जाता है।
सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूपको परोक्ष प्रमाण द्वारा अनुभवता है; परसत्ता – परस्वरूपसे अपना
कार्य न मानता हुआ योगद्वारसे अपने स्वरूपके ध्यान-विचाररूप क्रिया करता है, वह कार्य
करते हुए मिश्रव्यवहारी कहा जाता है।
केवलज्ञानी यथाख्यातचारित्रके बलसे शुद्धात्मस्वरूपका रमणशील है, इसलिये
शुद्धव्यवहारी कहा जाता है। योगारूढ़ अवस्था विद्यमान है, इसलिये व्यवहारी नाम कहते
हैं। शुद्धव्यवहारकी सरहद तेरहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त जानना।
असिद्धत्वपरिणमनत्वात् व्यवहारः।
अब, तीनों व्यवहारका स्वरूप कहते हैंः –
अशुद्धव्यवहार शुभाशुभाचाररूप, शुद्धाशुद्धाव्यवहार शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरणरूप,
शुद्धव्यवहार शुद्धस्वरूपाचरणरूप।
परन्तु विशेष इनका इतना कि कोई कहे कि शुद्धस्वरूपाचरणात्म तो सिद्धमें भी विद्यमान
है, वहाँ भी व्यवहार संज्ञा कहना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि संसारी अवस्थापर्यन्त
व्यवहार कहा जाता है। संसारावस्थाके मिटने पर व्यवहार भी मिटा कहा जाता है। यहाँ
यह स्थापना की है। इसलिये सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं।
इति व्यवहार विचार समाप्त।