Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३५२ ] [ परमार्थवचनिका
अब, आगम अध्यात्मका स्वरूप कहते हैंः
आगमवस्तुका जो स्वभाव उसे आगम कहते हैं। आत्माका जो अधिकार उसे
अध्यात्म कहते हैं। आगम तथा अध्यात्मस्वरूप भाव आत्मद्रव्यके जानने। वे दोनों भाव
संसार-अवस्थामें त्रिकालवर्ती मानने।
उसका विवरणआगमरूप कर्मपद्धति, अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति।
उसका विवरणकर्मपद्धति पौद्गलिकद्रव्यरूप अथवा भावरूप; द्रव्यरूप पुद्गल-
परिणाम, भावरूप पुद्गलाकार आत्माकी अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम; उन दोनों परिणामोंको
आगमरूप स्थापित किया। अब शुद्धचेतनापद्धति शुद्धात्मपरिणाम; वह भी द्रव्यरूप अथवा
भावरूप। द्रव्यरूप तो जीवत्वपरिणाम, भावरूप ज्ञान
दर्शनसुखवीर्य आदि
अनन्तगुणपरिणाम; वे दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानना।
आगम अध्यात्म दोनों पद्धतियोंमें अनन्तता माननी।
अनन्तता कही उसका विचार
अनन्तताका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं। जैसे वटवृक्षका बीज हाथमें लेकर उसका
विचार दीर्घदृष्टिसे करें तो उस वटके बीजमें एक वटका वृक्ष है; वह वृक्ष जैसा कुछ भाविकालमें
होनहार है वैसे विस्तारसहित विद्यमान उसमें वास्तवरूप मौजूद है, अनेक शाखा
प्रशाखा, पत्र,
पुष्प, फल संयुक्त है। फलफलमें अनेक बीज होते हैं।
इसप्रकारकी अवस्था एक वटके बीज सम्बन्धी विचारें। और भी सूक्ष्मदृष्टि दें तो
जो-जो बीज उस वटवृक्षमें हैं वे-वे अंतर्गर्भित वटवृक्ष संयुक्त होते हैं। इसी भाँति एक वटमें
अनेक-अनेक बीज, एक-एक बीजमें एक-एक वट, उसका विचार करें तो भाविनयप्रमाणसे
न वटवृक्षोंकी मर्यादा पाई जाती है, न बीजोंकी मर्यादा पाई जाती है।
इसीप्रकार अनन्तताका स्वरूप जानना।
उस अनन्तताके स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष भी अनन्त ही देखते-जानते-कहते हैं;
अनन्तका दूसरा अन्त है ही नहीं जो ज्ञानमें भाषित हो। इसलिये अनन्तता अनन्तरूप ही
प्रतिभासित होती है।
इसप्रकार आगम अध्यात्मकी अनन्तता जानना।
उसमें विशेष इतना कि अध्यात्मका स्वरूप अनन्त, आगमका स्वरूप अनन्तानन्तरूप,
यथापना-प्रमाणसे अध्यात्म एक द्रव्याश्रित, आगम अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्याश्रित।