Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३५४ ] [ परमार्थवचनिका
यह चाँदी है;इसप्रकार तीनों पुरुषोंने तो उस सीपका स्वरूप जाना नहीं, इसलिए तीनों
मिथ्यावादी हैं। अब, चौथा पुरुष बोला कि यह तो प्रत्यक्षप्रमाण सीपका टुकड़ा है, इसमें
क्या धोखा? सीप सीप सीप, निरधार सीप, इसको जो कोई और वस्तु कहे वह प्रत्यक्षप्रमाण
भ्रामक अथवा अंध। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको स्व-पर स्वरूपमें न संशय, न विमोह, न विभ्रम,
यथार्थ दृष्टि है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अंतर्दृष्टिसे मोक्षपद्धतिको साधना जानता है। बाह्यभाव
बाह्यनिमित्तरूप मानता है, वह निमित्त नानारूप है, एकरूप नहीं है। अंतर्दृष्टिके प्रमाणमें
मोक्षमार्ग साधे और सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरणकी कणिका जागने पर मोक्षमार्ग सच्चा।
मोक्षमार्गको साधना यह व्यवहार, शुद्धद्रव्य अक्रिया सो निश्चय। इसप्रकार निश्चय-
व्यवहारका स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है, मूढ जीव न जानता है, न मानता है। मूढ जीव
बंधपद्धतिको साधकर मोक्ष कहता है, वह बात ज्ञाता नहीं मानते।
क्यों? इसलिये कि बन्धके साधनेसे बन्ध सधता है, मोक्ष नहीं सधता। ज्ञाता जब
कदाचित् बन्धपद्धतिका विचार करता है तब जानता है कि इस पद्धतिसे मेरा द्रव्य अनादिका
बन्धरूप चला आया है; अब इस पद्धतिसे मोह तोड़कर प्रवर्त; इस पद्धतिका राग पूर्वकी
भाँति हे नर! किसलिये करते हो? क्षणमात्र भी बन्धपद्धतिमें मग्न नहीं होता, वह ज्ञाता
अपने स्वरूपको विचारता है, अनुभव करता है, ध्याता है, गाता है, श्रवण करता है,
नवधाभक्ति, तप, क्रिया, अपने शुद्धस्वरूपके सन्मुख होकर करता है। यह ज्ञाताका आचार,
इसीका नाम मिश्रव्यवहार।
अब, हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाताकी चाल उसका विचार लिखते हैंः
हेयत्यागरूप तो अपने द्रव्यकी अशुद्धता; ज्ञेयविचाररूप अन्य षट्द्रव्योंका स्वरूप;
उपादेयआचरणरूप अपने द्रव्यकी शुद्धता; उसका विवरणगुणस्थानप्रमाण हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप
शक्ति ज्ञाताकी होती है। ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप शक्ति वर्धमान हो त्यों-त्यों
गुणस्थानकी बढ़वारी कही है।
गुणस्थानप्रमाण ज्ञान, गुणस्थानप्रमाण क्रिया। उसमें विशेष इतना कि एक गुणस्थानवर्ती
अनेक जीव हों तो अनेकरूपका ज्ञान कहा जाता है, अनेकरूपकी क्रिया कही जाती है।
भिन्न-भिन्न सत्ताके प्रमाणसे एकता नहीं मिलती। एक-एक जीवद्रव्यमें अन्य-अन्यरूप
औदयिकभाव होते हैं, उन औदयिक भावानुसार ज्ञानकी अन्य-अन्यता जानना।
परन्तु विशेष इतना कि किसी जातिका ज्ञान ऐसा नहीं होता कि परसत्तावलंबनशीली
होकर मोक्षमार्ग साक्षात् कहे। क्यों? अवस्था-प्रमाण परसत्तावलंबक है; (परन्तु) परसत्तावलंबी
ज्ञानको परमार्थता नहीं कहता।