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परमार्थवचनिका ][ ३५५
जो ज्ञान हो वह स्वसत्तावलंबनशील होता है, उसका नाम ज्ञान। उस ज्ञानको
सहकारभूत निमित्तरूप नानाप्रकारके औदयिकभाव होते हैं, उन औदयिकभावोंका ज्ञाता तमाशगीर
है, न कर्ता है, न भोक्ता है, न अवलम्बी है; इसलिये कोई ऐसा कहे कि इसप्रकारके
औदयिकभाव सर्वथा हों तो फलाना गुणस्थान कहा जाय तो झूठ है। उन्होंने द्रव्यका स्वरूप
सर्वथा प्रकार नहीं जाना है।
क्यों? – इसलिये कि और गुणस्थानोंकी कौन बात चलाये? केवलीके भी
औदयिकभावोंकी नानाप्रकारता जानना। केवलीके भी औदयिकभाव एक-से नहीं होते। किसी
केवलीको दण्ड-कपाटरूप क्रियाका उदय होता है, किसी केवलीको नहीं होता। जब केवलीमें
भी उदयकी नानाप्रकारता है तब और गुणस्थानकी कौन बात चलाये?
इसलिये औदयिकभावोंके भरोसे ज्ञान नहीं है, ज्ञान स्वशक्तिप्रमाण है। स्व-पर-
प्रकाशकज्ञानकी शक्ति, ज्ञायकप्रमाण ज्ञान, स्वरूपाचरणरूप चारित्र यथानुभवप्रमाण – यह ज्ञाताका
सामर्थ्यपना है।
इन बातोंका विवरण कहाँ तक लिखें, कहाँ तक कहें? वचनातीत, इन्द्रियातीत,
ज्ञानातीत है, इसलिए यह विचार बहुत क्या लिखें? जो ज्ञाता होगा वह थोड़ा ही लिखा
बहुत करके समझेगा, जो अज्ञानी होगा वह यह चिट्ठी सुनेगा सही, परन्तु समझेगा नहीं।
यह वचनिका ज्यों की त्यों सुमतिप्रमाण केवलीवचनानुसारी है। जो इसे सुनेगा, समझेगा,
श्रद्धेगा; उसे कल्याणकारी है – भाग्यप्रमाण।
इति परमार्थवचनिका।
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