Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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उपादान-निमित्तका चिठ्ठी ][ ३५७
उसका विवरणसूक्ष्मदृष्टि देकर एक समयकी अवस्था द्रव्यकी लेना, समुच्चयरूप
मिथ्यात्व-सम्यक्त्वकी बात नहीं चलाना। किसी समय जीवकी अवस्था इसप्रकार होती है कि
जानरूप ज्ञान, विशुद्ध चारित्र; किसी समय अजानरूप ज्ञान, विशुद्ध चारित्र; किसी समय
जानरूप ज्ञान, संक्लेशरूप चारित्र; किसी समय अजानरूप ज्ञान, संक्लेश चारित्र। जिस समय
अजानरूप गति ज्ञानकी, संक्लेशरूप गति चारित्रकी; उस समय निमित्त-उपादान दोनों अशुद्ध।
किसी समय अजानरूप ज्ञान, विशुद्धरूप चारित्र; उस समय अशुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान।
किसी समय जानरूप ज्ञान, संक्लेशरूप चारित्र; उस समय शुद्ध निमित्त, अशुद्ध उपादान।
किसी समय जानरूप ज्ञान, विशुद्धरूप चारित्र; उस समय शुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान।
इस प्रकार जीवकी अन्य-अन्य दशा सदाकाल अनादिरूप है।
उसका विवरणजानरूप ज्ञानकी शुद्धता कही जाय, विशुद्धरूप चारित्रकी शुद्धता कही
जाय; अज्ञानरूप ज्ञानकी अशुद्धता कही जाय, संक्लेशरूप चारित्रकी अशुद्धता कही जाय।
अब उसका विचार सुनोः
मिथ्यात्व अवस्थामें किसी समय जीवका ज्ञानगुण जानरूप होता है, तब क्या जानता
है? ऐसा जानता है कि लक्ष्मी, पुत्र, कलत्र इत्यादि मुझसे न्यारे हैं, प्रत्यक्षप्रमाण; मैं मरूँगा,
ये यहाँ ही रहेंगे
ऐसा जानता है। अथवा ये जायेंगे, मैं रहूँगा, किसी काल इनसे मेरा
एक दिन वियोग है, ऐसा जानपना मिथ्यादृष्टिको होता है सो तो शुद्धता कही जाय, परन्तु
सम्यक्-शुद्धता नहीं, गर्भित शुद्धता; जब वस्तुका स्वरूप जाने तब सम्यक्शुद्धता; वह ग्रन्थिभेदके
बिना नहीं होती; परन्तु गर्भित शुद्धता सो भी अकामनिर्जरा है।
उसी जीवको किसी समय ज्ञानगुण अजानरूप है गहलरूप, उससे केवल बंध है।
इसीप्रकार मिथ्यात्व-अवस्थामें किसी समय चारित्रगुण विशुद्धरूप है, इसलिये चारित्रावरण कर्म
मन्द है, उस मन्दतासे निर्जरा है। किसी समय चारित्रगुण संक्लेशरूप है, इसलिये केवल
तीव्रबंध है। इसप्रकार मिथ्या-अवस्थामें जिस समय जानरूप ज्ञान है और विशुद्धतारूप चारित्र
है, उस समय निर्जरा है। जिस समय अजानरूप ज्ञान है, संक्लेशरूप चारित्र है, उस समय
बंध है। उसमें विशेष इतना कि अल्प निर्जरा बहुत बंध इसलिये मिथ्यात्व-अवस्थामें केवल
बंध कहा; अल्पकी अपेक्षा। जैसा किसी पुरुषको नफा थोड़ा टोटा बहुत, उस पुरुषको
टोटावाला ही कहा जाय। परन्तु बंध-निर्जराके बिना जीव किसी अवस्थामें नहीं है। दृष्टांत
यह कि
विशुद्धतासे निर्जरा न होती तो एकेन्द्रिय जीव निगोद अवस्थासे व्यवहारराशिमें किसके
बल आता, वहाँ तो ज्ञानगुण अजानरूप गहलरूप हैअबुद्धरूप है, इसलिये ज्ञानगुणका तो