-
दूसरा अधिकार ][ ३१
नोकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति
तथा नामकर्मके उदयसे शरीर होता है वह द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख - दुःखका कारण
है, इसलिये शरीरको नोकर्म कहते हैं। यहाँ नो शब्द ईषत् (अल्प) वाचक जानना। सो
शरीर पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है और द्रव्यइन्द्रिय, द्रव्यमन, श्वासोच्छ्वास तथा वचन —
ये भी शरीर ही के अंग हैं; इसलिये उन्हें भी पुद्गलपरमाणुओंके पिण्ड जानना।
इस प्रकार शरीरके और द्रव्यकर्मके सम्बन्ध सहित जीवके एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान
होता है। सो शरीरके जन्म-समयसे लेकर जितनी आयुकी स्थिति हो उतने काल तक शरीरका
सम्बन्ध रहता है। तथा आयु पूर्ण होने पर मरण होता है तब उस शरीरका सम्बन्ध छूटता
है, शरीर-आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं। तथा उसके अनन्तर समयमें अथवा दूसरे, तीसरे,
चौथे समय जीव कर्मोदयके निमित्तसे नवीन शरीर धारण करता है; वहाँ भी अपनी आयुपर्यंत
उसी प्रकार सम्बन्ध रहता है, फि र मरण होता है तब उससे सम्बन्ध छूटता है। इसी प्रकार
पूर्व शरीरका छोड़ना और नवीन शरीरका ग्रहण करना अनुक्रमसे हुआ करता है।
तथा यह आत्मा यद्यपि असंख्यातप्रदेशी है तथापि संकोच-विस्तार शक्तिसे शरीरप्रमाण
ही रहता है; विशेष इतना कि समुद्घात होने पर शरीरसे बाहर भी आत्माके प्रदेश फै लते
हैं और अन्तराल समयमें पूर्व शरीर छोड़ा था, उस प्रमाण रहते हैं।
तथा इस शरीरके अंगभूत द्रव्यइन्द्रिय और मन उनकी सहायतासे जीवके जानपनेकी
प्रवृत्ति होती है। तथा शरीरकी अवस्थाके अनुसार मोहके उदयसे जीव सुखी-दुःखी होता
है। तथा कभी तो जीवकी इच्छाके अनुसार शरीर प्रवर्तता है, कभी शरीरकी अवस्थाके
अनुसार जीव प्रवर्तता है; कभी जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्तता है, पुद्गल अन्यथा अवस्थारूप
प्रवर्तता है।
इस प्रकार इस नोकर्मकी प्रवृत्ति जानना।
नित्यनिगोद और इतरनिगोद
वहाँ अनादिसे लेकर प्रथम तो इस जीवके नित्यनिगोदरूप शरीरका सम्बन्ध पाया
जाता है, वहाँ नित्यनिगोद शरीरको धारण करके आयु पूर्ण होने पर मरकर फि र नित्यनिगोद
शरीरको धारण करता है, फि र आयु पूर्ण कर मरकर नित्यनिगोद शरीर ही को धारण
करता है। इसीप्रकार अनन्तानन्त प्रमाण सहित जीवराशि है सो अनादिसे वहाँ ही जन्म-
मरण किया करती है।