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३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वहाँसे छह महीना आठ समयमें छहसौ आठ जीव निकलते हैं, वे निकलकर
अन्य पर्यायों को धारण करते हैं। वे पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, प्रत्येक वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय
पर्यायोंमें तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय पर्यायों में अथवा नारक, तिर्यंच, मनुष्य,
देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायोंमें भ्रमण करते हैं। वहाँ कितने ही काल भ्रमण कर फि र निगोद
पर्यायको प्राप्त करे सो उसका नाम इतरनिगोद है।
तथा वहाँ कितने ही काल रहकर वहाँसे निकलकर अन्य पर्यायोंमें भ्रमण करते हैं।
वहाँ परिभ्रमण करनेका उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरोंमें असंख्यात कल्पमात्र है, और
द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसोंमें साधिक दो हजार सागर है, इतरनिगोदमें ढाई
पुद्गलपरावर्तनमात्र है जो कि अनन्तकाल है। इतरनिगोदसे निकलकर कोई स्थावर पर्याय
प्राप्त करके फि र निगोद जाते हैं।
इस प्रकार एकेन्द्रिय पर्यायोंमें उत्कृष्ट परिभ्रमणकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनमात्र है
तथा जघन्य तो सर्वत्र एक अंतर्मूहूर्त काल है। इस प्रकार अधिकांश तो एकेन्द्रिय पर्यायोंका
ही धारण करना है, अन्य पर्यायोंकी प्राप्ति तो काकतालीयन्यायवत् जानना।
इस प्रकार इस जीवको अनादिसे ही कर्मबन्धनरूप रोग हुआ है।
इति कर्मबन्धननिदान वर्णनम्।
कर्मबन्धनरूप रोगके निमित्तसे होनेवाली जीवकी अवस्था
इस कर्मबन्धनरूप रोगके निमित्त से जीवकी कैसी अवस्था हो रही है सो कहते हैंः —
ज्ञानावरण – दर्शनावरण कर्मोदयजन्य अवस्था
प्रथम तो इस जीवका स्वभाव चैतन्य है, वह सबके सामान्य-विशेष स्वरूपको प्रकाशित
करनेवाला है। जो उनका स्वरूप हो वैसा अपनेको प्रतिभासित हो, उसी का नाम चैतन्य है।
वहाँ सामान्यस्वरूप प्रतिभासित होने का नाम दर्शन है, विशेषस्वरूप प्रतिभासित होनेका नाम ज्ञान
है। ऐसे स्वभाव द्वारा त्रिकालवर्ती सर्वगुण-पर्यायसहित सर्व पदार्थोंको प्रत्यक्ष युगपत् बिना किसी
सहायताके देखे – जाने ऐसी शक्ति आत्मामें सदा काल है; परन्तु अनादिसे ही ज्ञानावरण,
दर्शनावरणका सम्बन्ध है — उसके निमित्तसे इस शक्तिका व्यक्तपना नहीं होता। उन कर्मोंके
क्षयोपशमसे किंचित् मतिज्ञान – श्रुतज्ञान पाया जाता है और कदाचित् अवधिज्ञान भी पाया जाता
है, अचक्षुदर्शन पाया जाता है और कदाचित् चक्षुदर्शन व अवधिदर्शन भी पाया जाता है।
इनकी भी प्रवृत्ति कैसी है सो दिखाते हैं।