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दूसरा अधिकार ][ ३३
मतिज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति
वहाँ प्रथम तो मतिज्ञान है; वह शरीरके अंगभूत जो जीभ, नासिका, नयन, कान,
स्पर्शन ये द्रव्यइन्द्रियाँ और हृदयस्थानमें आठ पँखुरियोंके फू ले कमलके आकारका द्रव्यमन —
इनकी सहायतासे ही जानता है। जैसे — जिसकी दृष्टि मंद हो वह अपने नेत्र द्वारा ही देखता
है, परन्तु चश्मा लगाने पर ही देखता है, बिना चश्मेके नहीं देख सकता। उसी प्रकार आत्माका
ज्ञान मंद है, वह अपने ज्ञानसे ही जानता है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा मनका सम्बन्ध होने
पर ही जानता है, उनके बिना नहीं जान सकता। तथा जिस प्रकार नेत्र तो जैसेके तैसे
हैं, परन्तु चश्मेमें कुछ दोष हुआ हो तो नहीं देख सकता अथवा थोड़ा दीखता है या औरका
और दीखता है; उसी प्रकार अपना क्षयोपशम तो जैसाका तैसा है, परन्तु द्रव्यइन्द्रिय तथा
मनके परमाणु अन्यथा परिणमित हुए हों तो जान नहीं सकता अथवा थोड़ा जानता है अथवा
औरका और जानता है। क्योंकि द्रव्यइन्द्रिय तथा मनरूप परमाणुओंके परिणमनको और
मतिज्ञानको निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये उनके परिणमनके अनुसार ज्ञानका परिणमन
होता है। उसका उदाहरण — जैसे मनुष्यादिकको बाल-वृद्धअवस्थामें द्रव्यइन्द्रिय तथा मन
शिथिल हो तब जानपना भी शिथिल होता है; तथा जैसे शीत वायु आदिके निमित्तसे
स्पर्शनादि इन्द्रियोंके और मनके परमाणु अन्यथा हों तब जानना नहीं होता अथवा थोड़ा जानना
होता है।
तथा इस ज्ञानको और बाह्य द्रव्योंको भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है।
उसका उदाहरण — जैसे नेत्रइन्द्रियको अंधकारके परमाणु अथवा फू ला आदिके परमाणु या
पाषाणादिके परमाणु आड़े आ जायें तो देख नहीं सकती। तथा लाल कांच आड़ा आ जाये
तो सब लाल दीखता है, हरित आड़ा आये तो हरित दीखता है — इस प्रकार अन्यथा जानना
होता है।
तथा दूरबीन, चश्मा इत्यादि आड़े आ जायें तो बहुत दीखने लग जाता है। प्रकाश,
जल, हिलव्वी काँच इत्यादिके परमाणु आड़े आयें तो भी जैसेका तैसा दीखता है। इसप्रकार
अन्य इन्द्रियों तथा मनके भी यथासम्भव जानना। मंत्रादिके प्रयोगसे अथवा मदिरापानादिकसे
अथवा भूतादिकके निमित्तसे नहीं जानना, थोड़ा जानना या अन्यथा जानना होता है। इस
प्रकार यह ज्ञान बाह्यद्रव्यके भी आधीन जानना।
तथा इस ज्ञान द्वारा जो जानना होता है वह अस्पष्ट जानना होता है; दूरसे कैसा
ही जानता है, समीपसे कैसा ही जानता है, तत्काल कैसा ही जानता है, जाननेमें बहुत देर