Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हो जाये तब कैसा ही जानता है, किसीको संशय सहित जानता है, किसीको अन्यथा जानता
है, किसीको किंचित् जानता है
इत्यादि रूपसे निर्मल जानना नहीं हो सकता।
इस प्रकार यह मतिज्ञान पराधीनता सहित इन्द्रियमन द्वारसे प्रवर्तता है। उन इन्द्रियों
द्वारा तो जितने क्षेत्रका विषय हो उतने क्षेत्रमें जो वर्तमान स्थूल अपने जानने योग्य पुद्गलस्कन्ध
हों उन्हींको जानता है। उनमें भी अलग-अलग इन्द्रियों द्वारा अलग-अलग कालमें किसी स्कन्धके
स्पर्शादिकका जानना होता है। तथा मन द्वारा अपने जानने योग्य किंचित्मात्र त्रिकाल सम्बन्धी
दूर क्षेत्रवर्ती अथवा समीप क्षेत्रवर्ती रूपी-अरूपी द्रव्यों और पर्यायोंको अत्यन्त अस्पष्टरूपसे जानता
है। सो भी इन्द्रियों द्वारा जिसका ज्ञान हुआ हो अथवा जिसका अनुमानादिक किया हो उस
ही को जान सकता है। तथा कदाचित् अपनी कल्पना ही से असत्को जानता है। जैसे स्वप्नमें
अथवा जागते हुए भी जो कदाचित् कहीं नहीं पाये जाते ऐसे आकारादिकका चिंतवन करता
है और जैसे नहीं हैं वैसे मानता है। इस प्रकार मन द्वारा जानना होता है। सो यह इन्द्रियों
व मन द्वारा जो ज्ञान होता है, उसका नाम मतिज्ञान है।
यहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, वनस्पतिरूप एकेन्द्रियोंके स्पर्श ही का ज्ञान है; लट,
शंख आदि दो इन्द्रिय जीवोंको स्पर्श, रसका ज्ञान है; कीड़ी, मकोड़ा आदि तीन इन्द्रिय जीवोंकों
स्पर्श, रस, गंधका ज्ञान है; भ्रमर, मक्षिका, पतंगादिक चौइन्द्रिय जीवोंको स्पर्श, रस, गंध,
वर्णका ज्ञान है; मच्छ, गाय, कबूतर इत्यादिक तिर्यंच और मनुष्य, देव, नारकी यह पंचेन्द्रिय
हैं
इन्हें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दोंका ज्ञान है। तिर्यंचोंमें कई संज्ञी हैं, कई असंज्ञी
हैं। वहाँ संज्ञियोंके मनजनित ज्ञान है, असंज्ञियोंको नहीं है। तथा मनुष्य, देव, नारकी संज्ञी
ही हैं, उन सबके मनजनित ज्ञान पाया जाता है।
इस प्रकार मतिज्ञानकी प्रवृत्ति जानना।
श्रुतज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति
अब, मतिज्ञान द्वारा जिस अर्थको जाना हो उसके सम्बन्धसे अन्य अर्थको जिसके
द्वारा जाना जाये सो श्रुतज्ञान है। वह दो प्रकारका है १. अक्षरात्मक २. अनक्षरात्मक।
जैसे ‘घट’, यह दो अक्षर सुने या देखे वह तो मतिज्ञान हुआ; उनके सम्बन्धसे घट-पदार्थका
जानना हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार अन्य भी जानना। यह तो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान
है। तथा जैसे स्पर्श द्वारा शीतका जानना हुआ वह तो मतिज्ञान है; उसके सम्बन्धसे ‘यह
हितकारी नहीं है, इसलिये भाग जाना’ इत्यादिरूप ज्ञान हुआ सो श्रुतज्ञान है। इस प्रकार
अन्य भी जानना। यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है।